नोबल पुरस्कार विजेता दलाई लामा की कलम से
नई दिल्ली: पेट की भूख हो या पैसे की कंगाली हो, हर तरह की गरीबी हमारे समाज से अब धीरे धीरे कम हो रही है. महिलाऐं हो या माइनॉरिटी के लोग, देश विदेश में इन कमज़ोर तबकों के अधिकारों के प्रति सजगता बढ़ी है. ये सही है कि दुनिया के कई हिस्सों में हिंसा और आतंक का साया है. कई देशों में राजनीति क उठापटक और अस्थिरता है. कहीं संघर्ष है तो कहीं तानाशाही भी है. लेकिन फिर भी दुनिया पहले से बेहतर हुई है. यूँ तो हमे अभी भी बहुत कुछ करना है पर हमारे सामने उम्मीद है और इस उम्मीद के साथ ही हम आगे बढ़ते जा रहे है.
लेकिन इस बेहतर होती दुनिया में सबसे बड़ा आश्चर्य ये है कि जो देश अमीर है, साधन सम्पन्न है और जहाँ खुशहाली होनी चाहिए वहां आज लोगों में कुंठा, क्रोध और निराशा ज्यादा देखने को मिल रही है. अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप के कई अमीर देशों में लोगों के मन में हताशा है. वे राजनैतिक कुंठा से ग्रसित हैं. उन्हें अपने भविष्य को लेकर दुविधा है. दुनिया के दूसरे हिस्से के लोग जो इन सम्पन्न देशों में बसने का सपना संजोते चले आये हैं उन्हें यहां के हालात देखकर तो और भी निराशा हो रही है.
ऐसा क्यों है ?
सम्पन्न देशों के नागरिकों में गहराती निराशा पर हाल में एक रिसर्च की गयी है. ये रिसर्च सीनियर सिटीजन यानी बुजुर्ग नागरिकों के व्यवहार, सोच और आचरण पर की गयी. रिसर्च से खुलासा हुआ कि जो सीनियर सिटीजन खुद को समाज या देश के लिए उपयोगी नहीं समझते हैं वो जल्दी परलोक सिधार जाते है. और जो सीनियर सिटीजन समाज के लिए उपयोगी रहते है उनकी उम्र कई गुना ज्यादा लम्बी होती है. यानी मनुष्य का उपयोगी रहना बेहद ज़रूरी है. उपयोगिता में ही हमारी जीने की शक्ति निहित है. हम उपयोगी हैं तो हम ऊर्जावान भी हैं. इसलिए दुनिया के सभी धर्म कहते हैं कि दूसरों की सेवा कीजिये. सेवा करेंगे तो उपयोगी रहेंगे. उपयोगी रहेंगे तो आपके जीवन का समाज में मूल्य है. और अगर आप उपयोगी नहीं हैं तो समाज आपको भूलने लगता है. और समाज की यही उपेक्षा आगे चलकर आपकी कुंठा का कारण बन सकती है.
रिसर्च से जाहिर होता है कि अमेरिका में जो लोग सेवा को प्राथमिकता देते हैं वो समाज से दूर हुए नागरिकों से कहीं ज्यादा खुश रहते है. जर्मनी में समाजसेवा से जुड़े लोग बाकी लोगों से पांच गुना खुश नज़र आते हैं. इसलिए ज़रूरी है कि हम खुद उपयोगी बनें. अगर सीनियर सिटीजन है तो किसी तरह समाज सेवा से जुड़ें. इस तरह हम उपेक्षा के शिकार नहीं होंगे. हम उपेक्षित वर्ग में नहीं समाहित होंगे. आज अमेरिका में दो तिहाई से ज्यादा अधेड़ उम्र के नागरिक खाली बैठे हैं. उनके पास ना नौकरी है और ना ही समाज सेवा से जुड़ा कोई काम. वे किसी भी तरह समाज के लिए उपयोगिता साबित नही कर पा रहे हैं. लिहाज़ा समाज ने उन्हें उपेक्षित कर दिया है. इसी उपेक्षा के चलते उनके भीतर नकारात्मक सोच ने घर बना लिया है. सच तो ये है कि इस घोर उपेक्षा के कारण नकारात्मक सोच उनमे इतनी ज्यादा बढ़ चुकी है कि उन्हें जीवन ही सार्थक नहीं लगता. ये उनकी कुंठा का बड़ा कारण है. वे अमीर देश में रह तो रहे हैं, खाने-पीने की भी उन्हें कमी नहीं है, उनके पास घर है, पेंशन है पर समाज से वे कटे हुए हैं. एकांत में जीते जीते उन्हें लगता है जैसे वे एक बोझ हैं और समाज को उनकी ज़रुरत नहीं रही. इसलिए जीवन नीरस है.
तो कैसे बने हम उपयोगी ?
इस सवाल का जवाब आपको व्यवस्था में नही ढूढना है. इसका जवाब आपको अपने भीतर टटलोना होगा. आपको ये समझना होगा कि आपके पास समाज को देने को क्या है..क्योंकि कोई न कोई खूबी तो सबके पास है. तो आपके पास वो कौन सी खूबी है जो आप समाज को दे सकते हैं ? क्या आपके पास कोई ऐसा हुनर है जो आप बच्चों को सिखा सकते हैं. समाज सेवा के किसी भी कार्यक्रम से आप कभी भी खुद को जोड़ सकते हैं. ऐसे ही एक सशक्त समाज जन्म लेता है. जहाँ एक पुरानी पीढ़ी अपनी नई पीढ़ी को कोई हुनर सिखाती है. नेताओं को भी समझना होगा की समाज के समुचित विकास के लिए सबकी उपयोगिता होनी चाहिए. सबको उपयोगी होने का अवसर देना चाहिए. इस दुनिया को सबकी ज़रुरत है.
कोई विचारधारा या कोई राजनैतिक पार्टी अकेले समाज को सशक्त नहीं कर सकती है. बल्कि समाज को सशक्त करने के लिए सबको आगे आना होगा. एक दूसरे में भरोसा जताना होगा. एक दूसरे की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाना होगा. मित्रता में जो गुण एक होने के लिए हैं, वो गुण और किसी चीज़ में नही है. इसलिए समाज में सबको जोड़िये. दोस्ती का हाथ आगे करिये और समूची दुनिया को जोड़िये.
(दलाई लामा का ये लेख न्यू यॉर्क टाइम्स में अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ है जिसे हिंदी में अनुवादित किया है दीपक शर्मा ने. पाठकों की सुविधा के लिए अनुवाद में कुछ अंश सम्पादित है.)