नई दिल्लीः देश के लिए कुर्बानियां तो अशफाक उल्लाखां और वीर अब्दुल हमीद ने भी दी, मगर एक गुमनाम चेहरे बत्तख मियां ने जो कुर्बानी दी वह कमतर नहीं, बल्कि बेमिसाल रही। अगर बत्तख मियां न होते तो न गांधी होते, न चंपारण में नील सत्याग्रह सफल होता और न ही देश को 1947 में आजादी मिलती। बल्कि संघर्ष और लंबा खिंचता। अफसोस की बात है, उसी बत्तख मियां का परिवार आजादी के बाद आई सरकारों के निकम्मेपन को झेल रहा है। उस बत्तख मियां को जीते जी कांग्रेस सरकार दो गज जमीन भी नहीं दे सकी, और दावा किया गया था 1950 में 50 एकड़ जमीन देने का। आज 67 साल बाद भी बत्तख मियां की तीसरी पीढ़ी जमीन के लिए दर-दर भटकने के बाद जंतर-मंतर पर धरना देने की तैयारी में है। सवाल है कि चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में जिस तरह से मोदी सरकार शताब्दी समारोह के तहत स्वच्छाग्रह उत्सव मना रही है, क्या उसी चंपारण के हीरो बत्तख मियां के परिवार से किया वादा भी पूरा होगा।
गांधी जी की बत्तख मियां ने बचाई थी जान दरअसल जब नील किसानों की बदहाली देख गांधी जी 1917 में चंपारण गए थे। तब उनके मूवमेंट से अंग्रेज सरकार डर गई थी। हुकूमत ने तय किया कि गांधी जी की हत्या करा दी जाए। ताकि किसान उनके प्रभाव में न आएं। तब वहां नील प्लांटेशन के मैनेजर इरविन को ब्रितानी हुकूमत ने गांधी जी की हत्या के लिए आदेश दिया। इस पर इरविन ने साजिश के तहत गांधी जी को डिनर पर बुलाया। अंग्रेज इरविन के रसोइया तब बत्तख मियां थे। इरविन ने बत्तख मियां को जहर की पुड़िया देते हुए कहा कि इसे दूध में मिलाकर डिनर के बाद गांधी जी को ग्लास दे देना। उस वक्त तो बत्तख मियां ने तो हामी भर दी। जब दूध देने की बारी आई तो बत्तख मियां ने गांधी जी को इशारा कर बता दिया कि दाल में काला है। दूध पीना खतरे से खाली नहीं है। जिस पर गांधी जी ने दूध नहीं पीया।
भेद खुलने पर जुल्म का शिकार हुआ बत्तख मियां का परिवार जब गांधी सही-सलामत बच गए और अगले दिन भेद खुला तो इरविन ने बत्तख मियां को न केवल नौकरी से निकाल दिया, बल्कि ब्रिटिश हुकूमत से गद्दारी के आरोप में कई फर्जी मुकदमे भी लदवा दिए। यही नहीं बत्तख मियां की गांव की पूरी जमीन छीन ली गई। वहीं परिवार को भी मोतिहारी के सिसवा अजगरी पैतृक गांव को छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया गया।
जब राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का वादा रहा अधूरा भारत को आजादी मिलने के बाद जब पं. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति बने तो 1950 में मोतिहारी आए। रेलवे स्टेशन पर भारी भीड़ उनकी अगुवानी के उमड़ी थी। इस बीच राजेंद्र प्रसाद की नजर दूर खड़े एक शख्स पर पड़ी और उसे नजदीक बुलाकर गले लगा लिया। सबको परिचय देते हुए बताया कि यह बत्तख मियां हैं अगर ये नहीं होते तो गांधी जी नहीं बचते। तब राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने जख्मों पर मरहम लगाने के लिए बत्तख मियां और उनके तीन बेटों राशिद अंसारी, शेर मोहम्मद और जान अंसारी को देने का निर्देश तत्कालीन कलेक्टर को दिया।
100 साल बाद भी वादाखिलाफी चंपारण सत्याग्रह को सौ साल हो गए हैं। फिर भी बत्तख मियां के बेटे 50 एकड़ जमीन के लिए अफसरों से लेकर नेताओं के दर पर भटकने को मजबूर हैं। बत्तख मियां के पोते अलाउद्दीन और कलाम अंसारी कहते हैं वर्ष 1958 में परिवार को सिर्फ छह एकड़ जमीन मिली वो भी अपने गांव में नहीं बल्कि वेस्ट चंपारण में। जो कि मोतिहारी से 110 किमी दूर है। यह जमीन अक्सर बाढ़ में डूब जाती है। जिससे ठीक से खेती भी नहीं होती। यह जमीन तब अलॉट हुई जब बत्तख मियां जमीन की आस में मर चुके थे।
परिवार बैठेगा जंतर-मंतर पर 2010 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को जब बत्तख मियां के परिवार के बारे में जानकारी हुई तो उन्होंने जमीन को लेकर चंपारण के कलेक्टर से रिपोर्ट तलब की। मगर कोई कार्रवाई नहीं हुई। पोते कलाम का कहना है कि उन्हें मोदी सरकार से आश है कि जिस तरह से सरकार चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने पर स्वच्छाग्रह आयोजन कर रही है, उसी तरह परिवार को जमीन भी उपलब्ध कराएगी, जो वादा पं. राजेंद्र प्रसाद कर गए थे। मगर सौ बाद भी अधूरा है। परिवार का कहना है कि वादाखिलाफी को लेकर अब जंतर-मंतर पर बैठने की तैयारी है।