
लखनऊ: प्रदेश के इस विधान सभाई चुनाव में कांग्रेस के लिये अच्छे संकेत नहीं मिल रहे है। कभी समूचे भारत में अपना खास सियासी असर रखने वाली कांग्रेस आज प्रदेश में अकेले अपने बलबूते यह चुनाव लडने के लायक ही नहीं रह गयी थी। दूसरा कोई दल उसे भाव ही नहीं दे रहा है। ऐसे में उसे बमुश्किल 15 से 20 सीटें ही मिलने के आसार थे यानी पिछली बार की 28 सीटों से भी कम। इसीलिये उसे समाजवादी जैसी क्षेत्रीय पार्टी से गठबंधन कर उसकी बी टीम होकर मैदान में उतरना पडा है। उसकी सियासी गरीबी में यह आटा और ज्यादा गीला हो जाने जैसा ही है।
इसे सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस को उसके युवराज राहुल गांधी की अद्भुत देन कही जा सकती है। काबिलगौर यह है कि राहुल बाबा की सियासी समझ के तहत किये गये इस गठबंधन के समझौते में यह कहा गया है कि कांग्रेस जितनी भी सीटें जीतेगी, उसका श्रेय उसके खाते में नहीं जायेगा। उसमें सपा की भी दावेदारी होगी। इस गठबंधन के पहले ही सपा ने कांग्रेस को जता दिया था कि वह यूपी में अपनी हैसियत पर चुनाव लड कर अपने खास वजूद बनाये रखने के लायक नहीं रह गयी है। लगता है कि राहुल गांधी की समझ में यह बात आ गयी कि इस समय उनकी पार्टी के 28 विधायक हैं। पिछले चुनाव में उसके 26 प्रत्याशी दूसरे स्थान पर रहे हैं। इस प्रकार इसे भी मिलाकर गिनती 54 तक ही पहुंचती है। इसीलिये 105 सीटें दिये जाने को पार्टी के लिये फायदे का सौदा समझ कर उन्हें इस गठबंधन के लिये ज्यादा झुक जाना पडा है।
इस स्थिति में यह कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस के राहुल युग में सवा सौ साल पुरानी पार्टी आज अपने सबसे बुरे दौर गुजर रही है। इसी बात की तस्दीक के लिये आज दोपहर ‘इंडिया संवाद‘ को प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय में जाने से इस नंगे सच का एहसास हुआ। वीरान से दिखाई पडे यहां व्यवस्था नाम की कोई चीज ही नजर नहीं आई। यह बताने वाला भी कोई नहीं मिला कि सपा से हुए गठबंधन के बाद पार्टी में कौन कहाँ से चुनाव लड रहा है? किस किस सीट पर गठबंधन के दोनों ही दलों के प्रत्याशी आपस में ही एक दूसरे से भिडे हुए हैं? किसका कहां किससे मुकाबला है? किसे कहाँ का प्रभारी बनाया गया है? मीडिया को चुनावी कार्यक्रमों तथा अन्य महत्वपूर्ण सूचनाएं देने के लिये क्या व्यवस्था है? ऐसे ही दूसरे और तमाम सवाल। वापसी में बाहर गेट के पास कुछ अधेड़ इस बहस में उलझे जरूर नजर आ गये कि चुनाव के बाद का़ंग्रेस में किसे उप मुख्य मंत्री बनाया जा सकता है।
इस गठबंधन का सबसे ज्यादा हास्यास्पद पहलू तो यह है कि कुछ ही दिनों पहले तक कांग्रेस के जिन कार्यकताओं से सपा के खिलाफ लगातार जहर उगलने के लिये कहा जाता रहा है, शीला दीक्षित को उत्तर प्रदेश का मुख्य मंत्री बनाने के लिये जिन पर अपनी पूरी ताकत झोंक देने के लिये दबाव डाला जाता रहा है, इस चुनाव में सपा सरकार को उखाड़ फेंकने के लिये जिन कार्यकर्ताओं से पुरजोर अपील की जाती रही है, सूबे की बदहाल कानून और व्यवस्था को लेकर अखिलेश सरकार की बखिया उधेड देने के लिये जिनका आह्वान किया गया था, अब उन्हीं कार्यकर्ताओं से यह कहा जा रहा है कि है वे सूबे के आमअवाम के बीच जाकर यह कहें कि इस सरकार में लोग अमनचैन की जिंदगी जी रहे हैं। इस सरकार के बारे में अब सब कुछ अच्छा ही बोलना है। बुरा एक भी शब्द नहीं।
नतीजतन, गंभीर असमंजस में पडे कार्यकर्ता राहुल गांधी की इस अद्भुत सियासी सूझ पर अपना सिर धुन रहे हैं। वे सवाल उठा रहे है कि पार्टी के जोरशोर से उछाले गये नारे ‘27 साल-यूपी बेहाल‘ का अब क्या होगा? उसने बडे दमखम से प्रदेश की सभी 403 सीटों पर चुनाव लडने का दावा ठोंका था। लेकिन, अब बिना लडे ही उसने हथियार डाल दिया है। ऐसे ही दूसरे तमाम तीखे सवाल। यही वजह है कि कार्यकर्ताओं को अब गठबंधन की हर सीट पर दुविधा ही नजर आ रही है। जहां कांग्रेस के उम्मीदवार हैं, वहां सपा को अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पा रहा है। दूसरी ओर, सपा नेतृत्व भी कांग्रेस के पक्ष में वोट स्थानांतरित कराने की स्थिति में नहीं है।
दूसरों की कौन कहे, इस बेहद अजीबोगरीब सियासी हालात में स्वयं कांग्रेस की स्टार प्रचारक प्रियंका वाड्रा भी हतप्रभ सी हैं। इस गठबंधन को कराने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन, अब स्थिति यह है कि पिछले शुक्रवार को वह अपनी माँ के संसदीय क्षेत्र रायबरेली की एक चुनावी सभा में गयीं तो लेकिन यहां उन्होंने ज्यादा समय तक चुप्पी ही साध रखी। उनकी समझ में ही नहीं आया कि इस चुनाव में वह एक दूसरे के आमने सामने खडे गठबंधन के प्रत्याशियों में से किसे जिताने और किसे हराने की अपील करें। अमेठी में भी उनका यही असमंजस बरकरार रहा है। लेकिन, मुख्य मंत्री अखिलेश यादव इस असमंजस से पूरी तरह बेअसर रहे। लिहाजा, इसी 20 फरवरी को उन्होंने अमेठी जाकर सपा प्रत्याशी गायत्री प्रसाद प्रजापति को जिताने की अपील की। साथ ही मतदाताओं से यह भी कहा कि वे रानियों की ओर देंखे तक नहीं।
बहरहाल, इस समूचे प्रकरण में यदि कोई चैन की वंशी बजाता नजर आ रहा है, तो वह हैं इस चुनाव के बाद कांगे्रस के अच्छे दिन लाने का भरोसा दिलाने वाले प्रशांत किशोर। लेकिन, अब अपनी सफाई पेश करते हुए वह कह सकते हैं कि उन्होंने तो इस चुनाव में प्रियंका गांधी को ही आगे करने के लिये कहा था। राहुल गांधी को नहीं। लेकिन, पुत्रमोह के उबाल में यदि कोई आत्मधाती प्रयास कर बैठे, तो इसमें वह क्या कर सकते हैं। जो भी हो। इस दलील को सुनकर कहने वाले यह कह सकते हैं कि ‘वर मरे चाहे कन्या, पुरोहित को तो अपनी दक्षिणा से ही काम।‘