डियर काव्यांक्षी
कैसी हो प्यारी, मै अच्छी ही आज का विषय मिला घरेलू हिंसा अब इस पर लोगों की मानसिकता के बारे में क्या ही कहे तुम्हे तो पता ही है एक औरत किस किस तरह इस हिंसा का शिकार होती है, कभी दहेज़ के नाम पर कभी अपनी मर्जी की जिंदगी के ख़्वाब सजाने पर भी पर आज मै तुमसे एक पुरुष जब अपनी जीवनसाथी का खुद को हकदार समझता है और अपनी मर्दानगी साबित करने को अपनी ही हमसफ़र के साथ दुर्व्यवहार करता है जिसे मैंने कविता का रूप दिया है तुमसे साझा करती हूं।
तो सुनो मेरी लिखी ये कविता घरेलू हिंसा के विषय पर
दर्द ना अपना किसी को बता पाती
ज़ख्म जो दिल पर कभी देह पर
ना किसी को दिखा पाती
आंखे अकेले में दर्द बरसाती
कोई समझ नहीं पाता दर्द उसका
आंखों का काजल बिखराती
होकर घरेलू हिंसा का शिकार
वो दामन अपना भिगाती
जिसके संग खुशहाल जीवन का
ख़्वाब सजाया
उसने उस पर हाथ उठाया
कर के बेइज्जत सारे आम
उसका तमाशा फिर बनाया
कैसे जिक्र करे कैसे अरमानों के शव को
जीवनसाथी ने जब जलाया
प्यार ही नहीं अपने आत्मसम्मान को भी
गंवाया
ज़ख्म देह के फिर भी भर जाए
आत्मा पर लगे घाव का मरहम ना कहीं पाया
कब तक सहे कोई घरेलू हिंसा का अत्याचार
कब तक तन ओर मन के घाव का दर्द सहे
कब तक होगी इस अत्याचार की शिकार
खुद को अंधेरों मे फिर पाया
सवालों के कटघरे में उलझा खुद पाया
मां बाबा के आंगन की जो कल थी कली
नाजों से थी वो पली
दूरी सहमी सी रहने लगी
ऊंची आवाज़ जो ना सहती थी
अत्याचार घरेलू हिंसा के सहने लगी
जो कल तक खिलखिलाया करती थी
आज मुस्कुराने को तरसती है
क्या ख़्वाब सजाए थे
अब तो सिर्फ दर्द मे आंखे बरसती है
घरेलू हिंसा की होकर शिकार
कैसा नरक सा जीवन बनाया
इस अत्याचार ने क्या हाल है बनाया
अक्सर ख़्याल जहन में उसके आया
शादी के रिश्ते में बंधने कर
हमसफ़र संग मीठा सा ख्वाब था सजाया
ख़्वाब बिखरा बस दुख ओर दर्द ही
रिश्ते से पाया
पति की करीबी से कतराती है
ना जाने कब मर्दानगी दिखा दे
इस ख्याल से ही सहम जाती
इस अत्याचार से बचाने ना कोई आए
पति है कहकर ना बात को बढ़ाए
सलाह ये ही तो हर किसी से पाए
इस रिश्ते में बंध कर नरक सी जिंदगी पाए
सहकर सारे अत्याचार अच्छी पत्नी या बहू कहलाए
रीत कैसी ये समाज ने चलाई
घरेलू हिंसा की प्रथा पर रोक क्यों ना
किसी ने लगाई
ज़ख्म तन पर ही नहीं मन पर भी पाती है
जब घरेलू हिंसा का ठप्पा आत्मा पर लगवाती है
सुन लो अहंकारी वो घरेलू हिंसा के शिकारी
जरा शर्म कर लो जरा तो करो विचार
औरत नहीं तुम्हारी संपति
जो सहे ये अत्याचार
मां बहन बेटी जाने कितने रूप में तुमसे जुड़ी रहती है
जीवनसाथी बनकर तुम्हारे सुख दुख में रहती है
हमसफ़र तुम्हारी बनकर जो आती है
उसके खुशियों का जरा तो करो ख़्याल
घरेलू हिंसा से ना करो उसे यूं बेहाल
तुम्हारा जीवन संवारने अपनी दुनिया जहां छोड़कर
वो आई
क्यों नरक सी जिंदगी उसकी तुमने बनाई
अपनाकर उसे जरा दे दो प्यार और सम्मान
इतनी सी बात से पूरे हो जाते उसके अरमान
छोटी दुनिया हर औरत की
तुम्हारे इर्द गिर्द बसा उसका छोटा सा जहान
मिट जाएगी तुम्हारे खातिर जरा कर के तो देखो जरा सा सम्मान