shabd-logo

घर से दूर एक घर ( भाग-3 )

22 जून 2022

20 बार देखा गया 20
हम एक ही कॉलोनी में रहते थे। चूंकि घर भी पास ही था, वह 10 मिनट में मेरे घर पहुॅंच गई। उसके चेहरे पर चिंता के भाव देखे जा सकते थे। यूँ अचानक रोते हुए फोन करना उसे भी अजीब लगा था। फटाफट जूते उतारकर मेरे पास आई और पूछा-- "क्या हुआ, ऐसी क्या बात हो गई?"  
                मैं तो कुछ बोलने की हालत में नहीं थी तो मम्मी ने उसे सब बताया और अब मुझे इंतज़ार था की 'बस अब सीमित मेरी तरफदारी करेगी और हमारा पलड़ा भारी हो जायेगा और शायद ये फैसला भी टल जाए।'
"देख अंशिका, बात को ठंडे दिमाग से सोच, तुझे कितना अच्छा चांस मिला है और ये हर किसी को आसानी से भी नहीं मिलता। वहाॅं तू कितना कुछ सीखेगी।" 
उसके यह शब्द सुनते ही मैं स्तब्ध रह गई। मैं क्या सोच रही थी और ये क्या बोले जा रही है....।
       सीमित ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा - "और एक बात सुन, अपन को बाहर तो जाना ही है कभी न कभी, आज तू पहली बार बाहर निकल रही है, तो अच्छा है न की तुझे एक सेफ माहौल मिलेगा, इससे तू बिना ज्यादा फिकर के बाहर रहना भी सीख जायेगी। अरे तू तो हमेशा हर चीज में आगे रही है, मुझे पता है। तू वहां भी सब अच्छे से मैनेज कर लेगी।"
              
                 क्या....... ये क्या था???

             मैं लगभग चौंकी। ये सुनते ही मैं मन ही मन सोचने लगी, " ये क्या है? तू मेरी दोस्त होकर भी ऐसा बोल रही है। मुझे लगा एक तू तो मेरा साथ देगी पर नहीं, तूने तो मम्मी की साइड ले ली।"वाह! क्या बात हैं।"
                
              दोस्त दोस्त ना रहा.....
                       यार यार ना रहा.....

मैं बोली-- "यार तू भी....."
वो बोली -- "तू एक बार सोच तो सही। अभी तो अपन को अपना करियर बनाना है, बहुत कुछ अचीव करना है और तुझे ये ऑपर्चुनिटी मिली है तो यूज कर न। क्या पता, ये तेरे फ्यूचर के लिए भी फायदेमंद साबित हो।

मैं मुंह बनाते हुऐ उसकी बात सुन रही थी।
                        मुझे पता था कि सीमित की तार्किक शक्ति बिल्कुल भी सीमित नहीं थी। उसकी लॉजिकल बातों से वो किसी को भी हरा सकती थी। तभी मैने कुछ सोचा और अपनी एक और दोस्त को कॉल लगाया। कॉल उठाते ही मैंने उसे अपनी मनःस्थिति बताई। मुझे पता था वो मेरे मन की बात समझ लेगी। मैंने उसे कहा- यार तू एक बार मम्मी से बात कर ले न, ट्राई कर न उन्हें समझाने का। उसने कहा - "ठीक है तू आंटी को फोन दे। मैंने मम्मा को फोन दिया। वो मम्मी से बोलती है -
         "हाँ आंटी, वैसे भेजने में भी कोई बुराई नहीं है पर ना जाए तो भी कोई घाटा नहीं और फिर यहाॅं भी तो कितना अच्छे से पढ़ रही हैं और अब उसका मन भी नहीं है तो रहने दो। उसकी परसेंटेज पर भी असर हो सकता है।"
         हाय....!! सुनते ही दिल को सुकून मिला। मन ही मन खुशी महसूस कर रही थी मैं।
पर मम्मी को शायद उसकी बात जमी नहीं और फोन काट दिया।
          इसका तो कोई खास असर नहीं हुआ और मेरा ये वार खाली चला गया। अब तो मुझे ये किसी गृहयुद्ध जैसा लग रहा था और मैं भी नई नई योजनाएं सोचने लगी।
      अब मैने एक नई रणनीति सोची और मुझे पता था की इसका असर जरूर होगा। आखिर मैं भी कम नहीं थी। माँ तो लगभग थक कर बैठ चुकीं थीं। 

                  मैने सीमित से कहा- "चल ठीक है, मान लिया ये सब लेकिन इसमें मेरा एक बहुत बड़ा नुकसान भी तो है। 
वो बोली - "कैसा नुकसान?" 
मेेंने कहा - "मेरे 12th के रिजल्ट का, मेरी पर्सेंट डाउन हो जायेगी। अब सब कुछ यूॅं बदल जाएगा तो मुझे कितनी दिक्कत आएगी..... और फिर मेरी तो अभी से हालत खराब हो रही है।"
तभी पीछे से मम्मी बोलीं - "तो हम लोग कब बोल रहे है की तुम्हारी पर्सेंट हाई ही होनी चाहिए। हम तो हमेशा की तरह यही कह रहे है की अपना बेस्ट दो। 
                      मेरी बात सुनकर शायद उसके दिमाग में ये बात गई, लेकिन मम्मी की बात सुनकर उसके चेहरे के भाव फिर बदल गए। थोड़ी देर सोचकर वो बोली - " चल तेरी सारी बुक्स लेकर आ...."
           
            हे भगवान! अब क्या करेगी ये....।

मैं बेमन से उठकर अपनी बुक्स लेकर आ गई। उसने सारे सब्जेक्ट्स का सिलेबस पूछा और लगभग 2 घंटे की मशक्कत के बाद एक फुल प्रूफ प्लान तैयार किया की मुझे कब कोनसे सब्जेक्ट को कितने घंटे में कवर करना है।
          मम्मी के चेहरे पर तो जैसे विजयी भाव दिख रहे थे और कहीं न कहीं उन्हे मेरी इस दोस्त पर भी गर्व महसूस हो रहा था।
मैं भी लगभग हार मान चुकी थी।
        
    'तुझे तो बाद में देखूंगी।'  सोचते हुए सारी बुक्स वापस रख कर आई और कहा ठीक है में ये टाइमटेबल फॉलो करती हूं और....।
अब कोई रास्ता बचा हुआ नहीं दिख रहा था तो मेंने भी सोचा 'ठीक है जो होगा देखा जाएगा।' 
      तभी सीमित का भाई उसे बुलाने आ गया। वो बोला - "दीदी चल, देख कितनी देर हो गई। 2 बजे आई थी, 6 बज गया है" हमने चौंक कर घड़ी देखी सच में 6 बज चुके थे कितना टाइम निकल गया फिर वो पूछता है वैसे हुआ क्या था अंशिका दी को? मेंने उसकी तरफ देखा इतने में सीमित बोली - 
          "अरे कुछ नही अंशिका दी तो थोड़ी ऐसी ही है।" वो दोनों ओर मम्मी हंसने लगे फिर वो दोनो चले गए और मैं एक खिसियानी सी मुस्कान देकर रह गई।

3
रचनाएँ
घर से दूर एक घर
0.0
न दिल से, न दिमाग से कुछ फैसले लिए जाते हैं, वक्त के हिसाब से।

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए