सुबह के लगभग 10 बज रहे थे। पापा ऑफिस जा चुके थे। मम्मी पापा का टिफिन बनाने के बाद अब खाने की तैयारी कर रहीं थीं।
मेरे आने पर मम्मी बोलती है "क्या हुआ बेटा! आज क्लास नहीं है क्या....? या कुछ चाहिए क्या बता......"
मैं बोली--- "नहीं कुछ नहीं, बस आप मेरी बात सुनो। मुझे पता है, आपने और पापा ने जो फैसला लिया है वो बेशक मेरे भले के लिए ही होगा, लेकिन माँ मुझे लग रहा है मैं अभी इसके लिए तैयार नहीं हूं। मैं तो कभी आप लोगों से दूर भी नहीं रही और ......
मेंने देखा माँ बहुत ध्यान से सुन रहीं थीं। मेंने बोलना जारी रखा।
अब आप ही बताओ, सिर्फ 2 साल ही तो रह गए हैं और मैं जितना अच्छा वहां करूंगी उतना अच्छा यहां रहकर भी तो कर सकती हूं ना। अब मात्र 2 साल के लिए एक नई जगह जाना, वहां का रहन-सहन अपनाना, वहां के नियम कानून समझना, नए नए लोगों से मिलना, उन्हे समझना, इस सब में कितना डिस्टर्ब हो जाऊंगी मैं।
अब माँ ने गैस बंद कर दी और मेरे पास आकर प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोली "पहले तू ये बता, तू इतना डर क्यों रही है.....? तू तो मेरी बहादुर बेटी है न...... और मुझे पता है तू सब कुछ बहुत अच्छे से मैनेज कर लेगी। लोगों से घुलने मिलने में तो तू माहिर है ही। तो बस कोई दिक्कत ही नहीं, और बेटा तुझे तो वहां नईं नईं चीजें सीखने को मिलेंगी। नए नए लोगों के साथ कैसे सामंजस्य बैठाना है वो सब भी तो सीखेगी। देखना तुझे वहां बहुत अच्छा लगेगा।"
मैं सुनकर उदास हो गई और भरे गले से बोली--- "पर माँ यह तो मैं यहां भी तो सीख सकती हूं ना। जो कुछ सीखना है आप यही सिखा दो। आई प्रोमिस, आप जो भी बोलोगी वो सब सीखूंगी......."
"इतना दूर मत भेजो ना मुझे........" कहते हुए मेरी आंखें छलछला गईं। यह देखकर मम्मी की आंखें भी थोड़ा द्रवित हो गईं।
उन्होंने बड़े प्यार से मेरा हाथ पकड़ा और बोली---- "अरे बेटा तुझे ज्यादा दूर थोड़े ना भेज रहे है, बस यहां से 6 किलोमीटर ही तो है। जब भी याद आयेगी हम आ जायेंगे तुझसे मिलने।"
अब उन्होंने एक गहरी सांस लेते हुए बोलीं--- "ऐसे मौके जीवन में बार बार नहीं मिलते और हर किसी को नहीं मिलते हैं। अरे ये तो कितनी अच्छी बात हैं की तेरी मेहनत की वजह से तेरा सिलेक्शन कितनी आसानी से हो गया।"
"अपने भविष्य को संवारने का कोई भी मौका हमें भावुक होंकर गवाना नहीं चाहिए।"
माँ को देखकर लगा की शायद उन्हें लग रहा था कि अब मैं समझ गई हूं और वो मेरी तरफ विश्वास भरी नजरों से देखने लगीं। मैं छलकती हुईं आंखों से फिर बोली---- "पर जाना ही क्यों है माँ।" मेरी आंखों में फिर वही प्रश्न था।
"कभी कभी बच्चों के फायदे के लिए कड़वी दवाई माँ को ही खिलानी पड़ती है।"
माँ ने अपना चिरपरिचित डायलॉग बोला।
लेकिन मेरी स्थिति को समझकर मम्मी थोड़ा परेशान दिखीं।
उन्होंने फिर कहना शुरू किया---- "देखो सिर्फ 2 साल....अरे अब तो डेढ़ साल ही बचा है। अब रहना ही कितना है वहां और वहां जाने से तुम्हें फ्यूचर में भी बेनिफिट मिलेगा। तुम्हारा सिलेक्शन आसानी से हो गया है तो तुम्हें कद्र नहीं है।"
फिर मम्मी ने काफी देर तक समझाया। फिर उन्हें ऐसा लगा की मेरा फैसला अडिग है तो वो भी विचलित हो गईं। तब उन्होंने मेरी एक स्कूल की मैडम को कॉल लगाया और उन्हें बताया कि मैं जाने के लिए मना कर रही हूं।
तो उन्होंने भी मुझे समझाया चूंकि वो टीचर थीं तो मेंने उन्हें कोई तर्क नहीं दिया, बस आंखों से गंगा जमुना बह रहीं थीं। फिर उन्होंने भी हथियार डालते हुए लास्ट में यही कहा कि "देख लो बहुत बड़ा मौका हाथ से जाने दे रही हो....आगे तुम्हारी मर्जी।"
अब मैं बिल्कुल शांत होकर बैठ गई। दिमाग में अब भी उथल पुथल चल रही थी।
फिर मम्मी ने मेरी एक सहेली को फोन किया। उसने मुझसे पूछा "क्या हुआ अंशिका"
ये सुनते ही मेरी आंखें फिर से भर आईं। वो बोली "कोई परेशानी है क्या? अच्छा रुक मैं घर आती हूं।"
यह सुनते ही एक आशा की किरण जागी की चलो कोई तो मेरा साथ देने आ रहा है।
चूंकि वो मेरी दोस्त थी तो जाहिर सी बात है वो मेरी साइड लेगी और मुझे समझेगी भी। मम्मी का भी उसकी बात मान लेने के चांसेज थे क्योंकि उनकी नजर में भी वो एक समझदार लड़की थी।
क्रमशः