जब कानपुर में राजगुरु के क़रीब 15 दिन इंतज़ार करने के बाद भी दूसरे पिस्तौल की व्यवस्था नहीं हो सकी, तो एक ही पिस्तौल लेकर हम लोग दिल्ली रवाना हो गये। दिल्ली पहुँचकर एक सराय में अपना सामान रखकर हम लोग उस व्यक्ति की तलाश में निकल गये। पूछताछ करने पर पता चला वह रोज़ शाम को सात और आठ के बीच घूमने जाता है।नयी दिल्ली उस समय तक नहीं बस पायी थी। बाक़ी सब जगह जंगल था। मथुरा रोड तो बिल्कुल वीरान था।
दूसरे दिन राजगुरु के सिर में दर्द था। इसलिए मैं अकेले ही मौक़े पर गया। उसके बहुत ज़िद करने पर भी मैं उसे सराय में ही छोड़ गया। लौटा तो रात के साढ़े नौ बज चुके थे। राजगुरु कंबल ओढ़े सड़क पर सराय के बाहर मेरी प्रतीक्षा में खड़ा था।
'इतनी ठंड में तुम बाहर मैदान में क्या कर रहे हो?' मैंने आते ही प्रश्न किया।
' मैं इस सराय में एक मिनट भी नहीं ठहरूँगा। हम लोगों को अभी कहीं दूसरी जगह इंतज़ाम करना होगा। '
मैंने बहुत पूछा आख़िरबात क्या है, लेकिन उसने एक न सुनी। "पहले यहाँ से चलो। बात दूसरी जगह चल कर बताउँगा," उसनेज़िद की। सामान के नाते हमारे पास दो कंबल और एक झोला था। एक कंबल मैं अपने साथ ले गया था और दूसरा कंबल तथा झोला वह उठा लाया था। उसने मुझे सराय में घुसने तक नहीं दिया। वह रात हम लोगों ने रेलवे स्टेशन पर तीसरे दर्जे के मुसाफिरखाने में गुज़ारी।
मुसाफ़िरखाने में जब हम दोनों पास-पास लेटे, तो मैंने सराय से भागने का कारण पूछा। राजगुरु बुरी तरह झेंप रहा था। "दुष्ट हैं! ख़राब लोग हैं! गुंडे हैं! बदचलन हैं!" आदि विशेषणों से आगे पूछने पर वह शर्म से बात टालने की कोशिश करने लगता। मामला संगीन कम और दिलचस्प ज़्यादा है , इतना तो मैं समझ ही गया था।
"जब तक ठीक-ठीक नहीं बताओगे, मैं सोने नहीं दूँगा, " मैंने धमकी दी।यह राजगुरू का कमज़ोर पहलू था और उसने झेंपते-झेंपते सारी कहानी बतला दी।
उस दिन शाम को खाना खाकर जैसे ही राजगुरु अपने कमरे में पहुँचा, वैसे ही एक सफ़ेद दाढ़ी वाले बुज़ुर्ग ने आकर लंबी सलाम मारी। राजगुरु ने सोचा, शायद उसी जैसा कोई मुसाफ़िर है जो वक़्त काटने के ख़याल से चला आया है।
"आइये बड़े मियाँ," कहकर उसने उनका स्वागत किया।
बड़े मियाँ ने खड़े-खड़े ही पूछा, " किसी बात की तकलीफ़ तो नहीं है हुज़ूर? "
"शुक्रिया",राजगुरु ने उत्तर दिया।
कुछ देर चुप रहकर बड़े मियाँ ने फिर कहा, " शर्माने की कोई बात नहीं है। यह आप ही का घर है। हम लोग ताबेदार हैं। आपके कहने भर की देर है। सब इंतज़ाम आपकी मर्ज़ी के मुताबिक़ मिनटों में हो जाएगा।"
राजगुरु फिर भी इशारा नहीं समझा।
' नहीं, सब ठीक है। आप फ़िक्र न करें। " उसने उत्तर दिया।
बड़े मियाँ जल्दी पीछा छोड़ने वाले नहीं थे। शायद छोकरा अभी नया-नया इस ज़िंदगी में आया है। इसलिए शर्म की वजह से दिल की बात नहीं कह पा रहा है, उन्होंने सोचा।
" मुझसे कहने में हिचकते हैं? कोई बात नहीं।मैं जाकर लड़के को भेज देता हूँ। आपका हमउम्र है। उससे खुलकर बातें कर लीजियेगा।" यह कह कर राजगुरु के जवाब का इंतज़ार किये बग़ैर बड़े मियाँ बाअदब सलाम देकर चले गये।
पाँच मिनट भी नहीं बीते थे कि बड़े-बड़े बालों वाले बाइस-तेईस साल के एक निहायत ख़ूबसूरत नौजवान ने बेतकल्लुफ़ी के साथ कमरे में प्रवेश किया और राजगुरु को सँभलने का मौक़ा दिये बग़ैर" आदाब अर्ज़ भाई जान!"कहकर उसी बेतकल्लुफ़ी से उसकी चारपाई पर बैठ गया।
" आपके दोस्त चले गये क्या? " उसने पूछा।
" नहीं, वे किसी काम से गये हैं। दस-साढ़े दस तक लौटेंगे। "
" वह काम तो हमारी मार्फ़त भी हो सकता था। जाड़ों के दिनों में बेकार इतनी ज़हमत मोल ली। '
" नहीं, वे ख़ास काम से गये हैं। "
" उनकी कोई ख़ास जगह होगी। वरना एक बार यहाँ आकर किसी दूसरी जगह तो कोई जाता नहीं है। " फिर बात को मोड़ देते हुए उसने पूछा, " आप नहीं गये उनके साथ? "
" मेरी तबियत ठीक नहीं है। सिर में दर्द है। "
" तो आपके लिए यहीं इंतज़ाम किया जाए? "
" किस बात का?"
" सिर दर्द ठीक करने का। मैं दो-तीन को बुलाये देता हूँ। आप देखकर पसंद कर लें। जब तक चाहें ,ख़िदमत में ले सकते हैं।आप दिन भर के थके मालूम पड़ते हैं। वैसे भी परदेस में तबियत ख़राब हो जाया करती है। हाथ-पैर दबा देगी। तबियत हल्की हो जाएगी। आराम से सोइयेगा।"
मूर्ख की समझ में इतनी देर बाद आया कि बूढ़ा और नौजवान दोनों दलाल हैं। वह इस तरह की बातों का आदी नहीं था। इसलिए शर्माते हुए उसने इनकार किया। लड़का शरम को हामी समझकर चला गया और थोड़ी देर में तीन लड़कियों के साथ वापस आया।
लड़कियों को देखते ही अपना कंबल तथा झोला उठाकर राजगुरु ऐसा भागा जैसे बिचक जाने पर रस्सी तुड़ाकर बैल भागता है। उसे भागता देख तीनों लड़कियाँ खिलखिला कर हंस पड़ीं।
उसकी कहानी सुनकर मुझे हँसी आ गई। छेड़ने के लिए मैंने कहा, " तो इसमें इतना घबराने और डर कर भागने की क्याबात थी। वे तुम्हें खा तो जाती नहीं। "
" नहीं भाई! वे तीन थीं। पता नहीं सब मिल कर मेरी क्या गत बनातीं। मेरे तो दिल की धड़कन रुकी जा रही थी। " उसने बड़ी मासूमियत से सफ़ाई देते हुए कहा। फिर कुछ देर ख़ामोश रहकर अचानक उठकर बैठ गया। " तुम्हें मेरी ख़ूबसूरती की धाक तो माननी ही पड़ेगी,प्रभात! वर्ना एक साथ तीन-तीन लड़कियों का आशिक हो जाना कोई मामूली बात नहीं है। " यह कहकर स्वयं ही अपनी पीठ थपथपाने लगा।
मैंने उसका हाथ पकड़कर कंबल में खींच लिया। " कंबल ओढ़कर पीठ थपथपाइये वर्ना सवेरे तक यह सारा हुस्न ठंडा पड़ जाएगा। " मैंने कहा।
अपनी इस आख़िरी सूझ पर वह स्वयं ही बड़ी देर तक लेटे-लेटे हँसता रहा।
( अमर शहीदों भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव और चंद्रशेखर आज़ाद के साथी क्रांतिकारी शिव वर्मा की संस्मरणात्मक किताब' संस्मृतियां' से।