मानव ईश्वर को पूरी दुनिया में ढूँढता फिरता है । ईश्वर का प्रमाण चाहता है, पर प्रमाण मिल नहीं पाता। ये ठीक वैसे हीं है जैसे कि मछली सागर का प्रमाण मांगे, पंछी आकाश का और दिया रोशनी का प्रकाश का। दरअसल मछली के लिए सागर का प्रमाण पाना बड़ा मुश्किल है। मछली सागर से भिन्न नहीं है । पंछी और आकाश एक हीं है । आकाश में हीं है पंछी । जहाँ दिया है वहाँ प्रकाश है। एक दुसरे के अभिन्न अंग हैं ये। ठीक वैसे हीं जीव ईश्वर का हीं अंग है। जब जीव खुद को जान जाएगा, ईश्वर को पहचान जाएगा। इसी वास्तविकता का उद्घाटन करती है ये कविता "प्रमाण"।
अनुभव के अतिरिक्त कोई आधार नहीं ,
परमेश्वर का पथ कोई व्यापार नहीं।
प्रभु में हीं जीवन कोई संज्ञान क्या लेगा?
सागर में हीं मीन भला प्रमाण क्या देगा?
खग जाने कैसे कोई आकाश भला?
दीपक जाने क्या है ये प्रकाश भला?
जहाँ स्वांस है प्राणों का संचार वहीं,
जहाँ प्राण है जीवन का आधार वहीं।
ईश्वर का क्या दोष भला प्रमाण में?
अभिमान सजा के तुम हीं हो अज्ञान में।
परमेश्वर ना छद्म तथ्य तेरे हीं प्राणी,
भ्रम का है आचार पथ्य तेरे अज्ञानी ।
कभी कानों से सुनकर ज्ञात नहीं ईश्वर ,
कितना भी पढ़ लो प्राप्त ना परमेश्वर।
कह कर प्रेम की बात भला बताए कैसे?
हुआ नहीं हो ईश्क उसे समझाए कैसे?
परमेश्वर में तू तुझी में परमेश्वर ,
पर तू हीं ना तत्तपर नहीं कोई अवसर।
दिल में है ना प्रीत कोई उदगार कहीं,
अनुभव के अतिरिक्त कोई आधार नहीं।
अजय अमिताभ सुमन