तुम कहते हो करूँ पश्चताप,
कि जीवन के प्रति रहा आकर्षित ,
अनगिनत वासनाओं से आसक्ति की ,
मन के पीछे भागा , कभी तन के पीछे भागा ,
कभी कम की चिंता तो कभी धन की भक्ति की।
करूँ पश्चाताप कि शक्ति के पीछे रहा आसक्त ,
कभी अनिरा से दूरी , कभी मदिरा की मज़बूरी ,
कभी लोभ कभी भोग तो कभी मोह का वियोग ,
पर योग के प्रति विषय-रोध के प्रति रहा निरासक्त?
और मैं सोचता हूँ पश्चाताप तो करूँ पर किसका ?
उन ईक्छाओं की जो कभी तृप्त ना हो सकी?
वो चाहतें जो मन में तो थी पर तन में खिल ना सकी?
हाँ हाँ इसका भी अफ़सोस है मुझे ,
कि मिल ना सका मुझे वो अतुलित धन ,
वो आपार संपदा जिन्हें रचना था मुझे , करना था सृजन।
और और भी वो बहुत सारी शक्तियां, वो असीम ताकत ,
जिन्हें हासिल करनी थी , जिनका करना था अर्जन।
मगर अफ़सोस ये कहाँ आकर फंस गया?
कि सुनना था अपने तन की।
मोक्ष की की बात तो तू अपने पास हीं रख ,
करने दे मुझे मेरे मन की।
अजय अमिताभ सुमन