देहरादून: पहाड़ों की रानी कही जाने वाली मसूरी जिसने 19 वीं सदी के अंत में पूर्वी एशिया को स्केटिंग का खेल दिया, आज उसका वहां एक भी कद्रदान नहीं. मसूरी में स्केटिंग के लिए न तो कोई खिलाड़ी बचा है और न कोई टूरिस्ट. 1990 के मध्य दशक तक पर्यटक और लोकल स्केटिंग खिलाडियों से खचाखच भरे रहने वाले “द रिंक” हाल में अब में ख़ामोशी पसरी है और हाल का कर्मी स्केटर के इंतज़ार करते हुये हर रोज़ शाम 7 बजे गेट पर ताला जड़ देता है. और फिर अगली सुबह यही सोच कर ताला खुलता है कि शायद आज कोई आयेगा लेकिन न तो कोई आता है और शायद न ही कोई आयेगा.
बिलियर्ड भी 19 वीं सदी के उत्तरार्ध में ब्रिटिश फौजियों के साथ लंदन और डबलिन से सीधा देश में सबसे पहले मसूरी पहुँचा था. 1960 के दशक के दिनों में हमारे माँ-बाप हमें प्रोत्साहित करते थे-“जाओ स्केटिंग खेल में स्पीड व प्रतिस्पर्धा में दूसरे स्केटरों से आगे निकलो.”उन दिनों द रिकं और मालरोड पर स्टेण्डर्ड रिकं(स्टीफल्स हाल) हमारे प्रिय खेल स्थल थे.स्टेण्डर्ड हमारे सामने 1967 में अग्निकाण्ड से स्वाह हुआ और मसूरी की एक भव्य विरासत खत्म हुई.
पूर्वी एशिया के सबसे बड़े स्केटिगं हाल/प्रेक्षाग्रह “द रिंक” का स्वामी शिकारी विल्सन का बड़ा बेटा था, जिसने इस खेल में पहाड़ के अनेकों नौजवानों को ख्याति दिलायी. मसूरी में स्केटिंग जैसी खेल विधा को पैदा करने वाले शहर से इस खेल का अंत होना दुखदायी है. कभी वार्सिलोना ओलम्पिक की रोलर हाकी के चीफ रैफरी स्व. नन्दकिशोर भम्बू और अनेक देश-विदेश के ख्यातिप्राप्त स्केटर इसी हाल के फर्श से ऊंचाई पर पहुँचे थे. तो अब देखना यही है कि क्या मसूरी का स्केटिंग इतिहास में गुम हो जाएगा या इतिहास अपने आपको फिर से दोहराएगा...