यह समाचार तो नहीं परन्तु समाज के बदलते परिवेश में इस घटना से अवगत कराना उचित समझता हूँ। जीवन में माँ का महत्व तभी समझ में आता है जब माँ नहीं होती है। अमिताभ श्रीवास्तव जी के सौजन्य से उत्तराखंड हिंदी अकादमी के उप सचिव सुशील उपाध्याय की फेसबुक पर लिखी एक बहुत मार्मिक पोस्ट को पढ़ने का अवसर मिला जिसके बाद मैं स्वयं भी अपने आँसू रोक नहीं सका।
नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन की एक घटना में सुशील उपाध्याय को रेल यात्रा के दौरान एक ऐसी औरत मिली जिसने उनका दिल दहला दिया। महानगरीय आधुनिक मध्यवर्गीय परिवेश में रहने वाले हम लोग अपने बुजुर्गों के प्रति कितने क्रूर हैं ये घटना इसकी एक और मिसाल है।कोई मां को भी घर से निकाल सकता है,ऐसा सपने में भी अहसास नहीं होता है।
"ट्रेन को नई दिल्ली स्टेशन पर आधा घंटा रुकना था। यात्राओं के दौरान में मुझे चाय की धसक लगी रहती है। ट्रेन रुकी और झट से चाय का नया कप थाम लेता हूं। खैर, चाय की फिराक में स्टेशन पर उतरा। मेरे बराबर में एक बुजुर्ग औरत खड़ी थी। मुझे लगा कि भिखारिन है। मैं स्टेशन के ठेले के पास चाय सुड़कने लगा। तभी, उस औरत ने कहा, मुझे भी चाय दिलवा दो। आमतौर से मुझे भीख मांगने वालों से चिढ़ होती है। (ये बात अलग है कि मेरी पीढ़ियां सैंकड़ों साल से यह काम करती रही हैं!)
उस औरत की कदकाठी और डीलडौल मेरी मां के जैसा था।
मां के देहावसान के बाद अक्सर मुझे बुजुर्ग औरतों में अपनी मां की छवि दिखने लगती है। मैंने, उन्हें चाय दिलवाई। वे बोली, कुछ बिस्किट भी दिलवा दो। चाय और बिस्किट लेने के बाद वो स्टेशन के एक खंभे से सटकर बैठ गई। उसका झोला पास में ही था। मुझे थोड़ी हैरानी हुई, झोले में से कुछ पुरानी किताबें और पत्रिकाएं झांक रही थी। हम दोनों एक साथ ही चाय खत्म की और वो फिर दुकान के पास आ गई। मुझ से बोली, चाय के कितने पैसे दिए। मैंने कहा, एक कप के लिए 10 रुपये। फिर वो अचानक ठेले वाले की ओर मुखातिब हुई और बोली, रेट तो 7 रुपये का है, तुम 10 कैसे ले रहे हो। ठेले वाले ने उसे अनदेखा करने की कोशिश की, लेकिन वो भिड़ गई। मैंने, उसे रोकने का प्रयास किया, लेकिन उसने अच्छा खास शोर-शराबा मचा दिया।
स्टेशन पर मौजूद दो पुलिस वाले भी वहां आ गए और मामला तभी सुलटा जब दुकानवाले ने 6 रुपये वापस कर दिए। दुकानदार ने पैसे मेरी ओर बढ़ाए तो मैंने उन पैसों को उस औरत की ओर बढ़ा दिया, लेकिन उसने लेने से मना कर दिया। वो बोली, मैं भीख नहीं मांगती, बस सुबह चाय और दो वक्त का खाना मांगती हूं। बेटे-बहुओं ने घर से निकाल दिया है, पिछले एक साल से स्टेशन पर ही रहती हूं। मैंने, अपने आप को सहज रखने के लिए 20 रुपये निकालकर औरत की ओर बढ़ाए कि दोपहर का खाना खा लेना। लेकिन, उसने मना कर दिया और बोली, अगली बार आओ तो यहीं मिलूंगी, तब खाना खिलवा देना। ट्रेन चल पड़ी और मैं खिड़की पर खड़ा होकर उसे देखता रहा।
मन में एक हल्का से ख्याल आया कि उसे कहूं कि मेरे साथ चलो, मेरी मां मर गई। पर, ये ख्याल बहुत क्षणिक ही था। चलने से पहले उसने अपना नाम भी बताया। कई दिन से वो औरत, जो कि मेरी मां जैसी थी, अब भी दिमाग में उलझन की तरह घूम रही है। कोई मां को भी घर से निकाल सकता है क्या!!! मैंने, एक दोस्त से इस घटना का जिक्र किया, उसने बताया कि स्टेशनों पर ऐसे काफी बुजुर्ग मिल जाएंगे जो भिखारी नहीं हैं, उन्हें बेटे-बहुओं ने अपने घरों से निकाल दिया गया है। यह कहानी नहीं एक वास्तविक घटना है जिससे आज के समाज को शिक्षा लेनी चाहिए।