सुबह सुबह किसी शहर में सड़क पर आ जाने का फ़ितूर पुराना है। ख़ाली सड़कों पर इक्का दुक्का बत्ती जली कारों को देखना अच्छा लगता है। कोई साइकल सवार दूर से चला आ रहा होता है,उसे देखकर लगता है जैसे उसने जीवन में बाज़ी मार ली हो। चेन्नई में भी ऐसे ही जागा और बाहर की ओर भागा जैसे बहुत सी अनजान कारें रेल की तरह छूटी जा रही हों। लेकिन मैं कारों से भी ज़्यादा अख़बार पढ़ते लोगो को देखने के लिए भागता हूँ । मुझे अच्छा लगता है कि पहली किरणों की तरह लोगों के हाथ में अख़बार का खुला पन्ना देखना।
चेन्नई के एक विष्णु मंदिर के बाहर भिक्षाटन के लिए कुछ महिलाओं को अख़बार सुनते देखा। बाक़ी तो सुन ही रही थी। सिर्फ एक थी जो ख़बरें बाँच रही थी। उस ग़ौर से पढ़ते देखकर यक़ीन हो गया है कि अगर इन ख़बरों में असलीयत हो तो एक दिन जनता हुकूमत के कान सीधी कर देगी। पर ऐसा होता कहाँ है। लेकिन भिक्षा के बीच बीच में ख़बरों को पढ़ रही इस भिक्षुक को देखकर अच्छा लगा। वैसे भी समूह में मर्दों को अख़बार पढ़ते तो कितनी बार देखा है लेकिन इस तरह औरतों को पढ़ते हुए चेन्नई में ही देखा ।
अख़बार समाज बदल सकता है। यह बात सरकारें जानती हैं। इसलिए वे अख़बारों को ही बदल देती हैं। आप किसी भी भाषा के अख़बारों को देखिये। वहाँ लिखने का ढाँचा बन गया है । उसी ढर्रे पर सब लिखते हैं। जब लिखावट में साहस और बदलाव ख़त्म हो जाए तो पाठक होते हुए भी पाठक मर जाता है। क्या ये लोग अख़बारों को पढ़ते हुए अपनी हक़ीक़त जान पाते हैं या फिर पढ़ने का संबंध जीवन बदलने या न बदलने के कारणों को जानने से ही नहीं है। सिर्फ एक आदत है । तमिल राजनीति के दो खेमों में बँटा और धँसा यह पाठक स्वतंत्र पत्रकारिता की चाह रखते हुए आज़ाद पाठक होना चाहता है या ग़ुलाम वोटर ?