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कहानी : डाची / उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’

12 अप्रैल 2016

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काट (काट - दस-बीस सिरकियों के खैमों का छोटा-सा गाँव) 'पी सिकंदरके मुसलमान जाट बाकर को अपने माल की ओर लालचभरी निगाहों से तकते देख कर चौधरी नंदू वृक्ष की छाँह में बैठे-बैठे अपनी ऊँची घरघराती आवाज में ललकार उठा, 'रे-रे अठे के करे है (अरे तू यहाँ क्या कर रहा है?)?' और उस की छह फुट लंबी सुगठित देहजो वृक्ष के तने के साथ आराम कर रही थीतन गई और बटन टूटे होने के कारण,मोटी खादी के कुर्ते से उसका विशाल वक्षस्थल और उसकी बलिष्ठ भुजाएँ दृष्टिगोचर हो उठीं। बाकर तनिक समीप आ गया। गर्द से भरी हुई छोटी-नुकीली दाढ़ी और शरअई मूँछों के ऊपर गढ़ों में धँसी हुई दो आँखों में निमिष मात्र के लिए चमक पैदा हुई और जरा मुस्करा कर उसने कहा, 'डाची (साँड़नी) देख रहा था चौधरी,कैसी खूबसूरत और जवान हैदेख कर आँखों की भूख मिटती है।' अपने माल की प्रशंसा सुन कर चौधरी नंदू का तनाव कुछ कम हुआप्रसन्न हो कर बोला, 'किसी साँड़ (कौन-सी डाची)?'

'वहपरली तरफ से चौथी।बाकर ने संकेत करते हुए कहा।

ओकाँह (एक वृक्ष-विशेष) के एक घने पेड़ की छाया में आठ-दस ऊँट बँधे थेउन्हीं में एक जवान साँड़नी अपनी लंबीसुंदर और सुडौल गर्दन बढ़ाए घने पत्तों में मुँह मार रही थी माल मंडी मेंदूर जहाँ तक नजर जाती थीबड़े-बड़े ऊँचे ऊँटोंसुंदर साँड़नियोंकाली-मोटी बेडौल भैंसोंसुंदर नगौरी सींगोंवाले बैलों और गायों के सिवा कुछ न दिखाई देता था। गधे भी थेपर न होने के बराबर अधिकांश तो ऊँट ही थे। बहावल नगर के मरुस्थल में होनेवाली माल मंडी में उनका आधिक्य था भी स्वाभाविक। ऊँट रेगिस्तान का जानवर है। इस रेतीले इलाके में आमदरफ्तखेती-बाड़ी और बारबरदारी का काम उसी से होता है। पुराने समय में गायें दस-दस और बैल पंद्रह-पंद्रह रुपए में मिल जाते थेतब भी अच्छा ऊँट पचास से कम में हाथ न आता था और अब भी जब इस इलाके में नहर आ गई हैपानी की इतनी किल्लत नहीं रहीऊँट का महत्व कम नहीं हुआबल्कि बढ़ा ही है। सवारी के ऊँट दो-दो सौ से तीन-तीन सौ तक में पाए जाते हैं और बाही तथा बारबरदारी के भी अस्सी सौ से कम में हाथ नहीं आते।

तनिक और आगे बढ़ कर बाकर ने कहा, 'सच कहता हूँ चौधरीइस जैसी सुंदरी साँड़नी मुझे सारी मंडी में दिखाई नहीं दी।'

हर्ष से नंदू का सीना दुगुना हो गया बोला, 'आ एक ही केइह तो सगली फूटरी हैं। हूँ तो इन्हें चारा फलूँसी निरिया करूँ (यह एक ही क्यायह तो सब ही सुंदर हैमैं इन्हें चारा और फलूँसी (ज्वार और मोठ] देता हूँ)।'

धीरे से बाकर ने पूछा, 'बेचोगे इसे? 'नंदू ने कहा, 'इठई बेचने लई तो लाया हूँ।'

'तो फिर बताओ,कितने की दोगे?'

नंदू ने नख से शिख तक बाकर पर एक दृष्टि डाली और हँसते हुए बोला, 'तन्ने चाही जै का तेरे धनी बेई मोल लेसी (तुझे चाहिएया तू अपने मालिक के लिए मोल ले रहा है?)?'

'मुझे चाहिए।बाकर ने दृढ़ता से कहा।

नंदू ने उपेक्षा से सिर हिलाया। इस मजदूर की यह बिसात कि ऐसी सुंदर साँड़नी मोल ले। बोला, 'तूँ की लेसी?' बाकर की जेब में पड़े डेढ़ सौ के नोट जैसे बाहर उछल पड़ने के लिए व्यग्र हो उठे। तनिक जोश के साथ उसने कहा, 'तुम्हें इससे क्याकोई लेतुम्हें तो अपनी कीमत से गरज हैतुम मोल बताओ? 'नंदू ने उसके जीर्ण-शीर्ण कपड़ोंघुटनों से उठे हुए तहमद और जैसे नूह के वक्त से भी पुराने जूते को देखते हुए टालने के विचार से कहा, 'जा-जातू इशी-विशी ले आईइगो मोल तो आठ बीसी सूँ घाट के नहीं (जाजा,तू कोई ऐसी-वैसी साँड़नी खरीद लेइसका मूल्य तो 160 से कम नही)। 'एक निमिष के लिए बाकर के थके हुएव्यथित चेहरे पर आह्लाद की रेखा झलक उठी उसे डर था कि चौधरी कहीं ऐसा मोल न बता देजो उसकी बिसात से ही बाहर होपर जब अपनी जबान से ही उसने 160 जो बताएतो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। 150 तो उसके पास थे ही। यदि इतने पर भी चौधरी न मानातो दस रुपए वह उधार कर लेगा। भाव-ताव तो उसे करना आता न था। झट से उसने डेढ़ सौ के नोट निकाले और नंदू के आगे फेंक दिए। बोला - 'गिन लोइनसे अधिक मेरे पास नहींअब आगे तुम्हारी मर्जी।'

नंदू ने अन्यमनस्कता से नोट गिनने आरंभ कर दिए। पर गिनती खत्म करते ही उसकी आँखें चमक उठीं। उसने तो बाकर को टालने के लिए ही मूल्य 160 बता दिया थानहीं तो मंडी में अच्छी से अच्छी डाची डेढ़ सौ में मिल जाती। और इसके तो 140 पाने की भी कल्पना उसने स्वप्न में न की थी। पर शीघ्र ही मन के भावों को छिपा कर और जैसे बाकर पर अहसान का बोझ लादते हुए नंदू बोला, 'साँड़ तो मेरी दो सौ की है,पण जा सग्गी मोल मिया तन्ने दस छाँड़िया (साँड़नी तो मेरी 200 की हैपर जासारी कीमत में से तुम्हें दस रुपए छोड़ दिए)।और यह कहते-कहते उठ कर उसने साँड़नी की रस्सी बाकर के हाथ में दे दी।

क्षण भर के लिए उस कठोर व्यक्ति का जी भर आया। यह साँड़नी उसके यहाँ ही पैदा हुई और पली थी। आज पाल-पोस कर उसे दूसरे के हाथ में सौंपते हुए उसके मन की कुछ ऐसी दशा हुईजो लड़की को ससुराल भेजते समय पिता की होती है। जरा काँपती आवाज मेंस्वर को तनिक नर्म करते हुएउसने कहा - 'आ साँड़ सोरी रहेड़ी तू इन्हें रेहड़ में गेर दई (यह साँड़नी अच्छी तरह रखी गई हैतू इसे यों ही मिट्टी में न रोल लेना)।ऐसे हीजैसे ससुर दामाद से कह रहा हो - 'मेरी लड़की लाड़ों पली हैदेखना इसे कष्ट न देना।' आह्लाद के पंख पर उड़ते हुए बाकर ने कहा - 'तुम जरा भी चिंता न करोजान दे कर पालूँगा।'

नंदू ने नोट अंटी में सँभालते हुएजैसे सूखे हुए गले को जरा तर करने के लिएघड़े से मिट्टी का प्याला भरा। मंडी में चारों ओर धूल उड़ रही थी। शहरों की माल-मंडियों में भी जहाँ बीसियों अस्थायी नल लग जाते हैं और सारा-सारा दिन छिड़काव होता रहता हैधूल की कमी नहीं होतीफिर रेगिस्तान की मंडी पर तो धूल ही का साम्राज्य था। गन्नेवाले की गड़ेरियों परहलवाई के हलवे और जलेबियों पर और खोंचेवाले के दही-बड़े परसब जगह धूल का पूर्णाधिकार था। घड़े का पानी टाँचियों द्वारा नहर से लाया गया थापर यहाँ आते-आते वह कीचड़ जैसा गँदला हो जाता था। नंदू का ख्याल था कि निथरने पर पिएगापर गला कुछ सूख रहा था। एक ही घूँट में प्याले को खत्म करके नंदू ने बाकर से भी पानी पीने के लिए कहा। बाकर आया थातो उसे गजब की प्यास लगी हुई थीपर अब उसे पानी पीने की फुर्सत कहाँवह रात होने से पहले-पहले गाँव पहुँचना चाहता था। डाची की रस्सी पकड़े हुए धूल को चीरता हुआ-सा चल पड़ा।

बाकर के दिल में बड़ी देर से एक सुंदर और युवा डाची खरीदने की लालसा थी। जाति से वह कमीन था। उसके पूर्वज कुम्हारों का काम करते थेकिंतु उसके पिता ने अपना पैतृक काम छोड़ कर मजदूरी करना ही शुरू कर दिया था। उसके बाद बाकर भी इसी से अपना और छोटे-से कुटुंब का पेट पालता आ रहा था। वह काम अधिक करता होयह बात न थी। काम से उसने सदैव जी चुराया था। चुराता भी क्यों नजब उसकी पत्नी उससे दुगुना काम करके उसके भार को बँटाने और उसे आराम पहुँचाने के लिए मौजूद थी। कुटुंब बड़ा न था - वह एकएक उसकी पत्नी और एक नन्हीं-सी बच्ची। फिर किसलिए वह जी हलकान करता! पर क्रूर और 'बेपीरविधाता - उसने उसे उस विस्मृति सेसुख की उस नींद से जगा कर अपना उत्तरदायित्व समझने पर बाध्य कर दिया। उसे बता दिया कि जीवन में सुख ही नहींआराम ही नहींदुख भी हैपरिश्रम भी है।

पाँच वर्ष हुए उसकी वही आराम देनेवाली प्यारी पत्नी सुंदर गुड़िया-सी लड़की को छोड़ कर परलोक सिधार गई थी। मरते समयअपनी सारी करुणा को अपनी फीकी और श्रीहीन आँखों में बटोर कर उसने बाकर से कहा था - 'मेरी रजिया अब तुम्हारे हवाले हैइसे कष्ट न होने देना!इसी एक वाक्य ने बाकर के समस्त जीवन के रुख को पलट दिया था। उसकी मृत्यु के बाद ही वह अपनी विधवा बहिन को उसके गाँव से ले आया था और अपने आलस्य तथा प्रमाद को छोड़ कर अपनी मृत पत्नी की अंतिम अभिलाषा को पूरा करने में संलग्न हो गया था। वह दिन-रात काम करता था बल्कि अपनी मृत पत्नी की उस धरोहर कोअपनी उस नन्हीं-सी गुड़िया कोभाँति-भाँति की चीजें ला कर प्रसन्न रख सके। जब भी कभी वह मंडी को आतातो नन्हीं-सी रजिया उसकी टाँगों से लिपट जाती और अपनी बड़ी-बड़ी आँखें उसके गर्द से अटे हुए चेहरे पर जमा कर पूछती - 'अब्बामेरे लिए क्या लाए हो?' तो वह उसे अपनी गोद में ले लेता और कभी मिठाई और कभी खिलौनों से उसकी झोली भर देता। तब रजिया उसकी गोद से उतर जाती और अपनी सहेलियों को अपने खिलौने या मिठाई दिखाने के लिए भाग जाती। यही गुड़िया जब आठ वर्ष की हुईतो एक दिन मचल कर अपने अब्बा से कहने लगी - 'अब्बाहम तो डाची लेंगेअब्बाहमें डाची ले दो।भोली-भाली निरीह बालिका! उसे क्या मालूम कि वह एक विपन्न साधनहीन मजदूर की बेटी हैजिसके लिए डाची खरीदना तो दूर रहाडाची की कल्पना भी पाप है। रूखी हँसी हँस कर बाकर ने उसे अपनी गोद में लिया और बोला - 'रज्जोतू तो खुद डाची है।पर रजिया न मानी। उस दिन मशीरमाल अपनी साँड़नी पर चढ़ कर अपनी छोटी लड़की को अपने आगे बैठाए दो-चार मजदूर लेने के लिए अपनी इसी काट में आए थे। तभी रजिया के नन्हें-से मन में डाची पर सवार होने की प्रबल आकांक्षा पैदा हो उठी थीऔर उसी दिन से बाकर की रही-सही अकर्मण्यता भी दूर हो गई थी।

उसने रजिया को टाल तो दिया थापर मन ही मन उसने प्रतिज्ञा कर ली थी कि वह अवश्य रजिया के लिए एक सुंदर-सी डाची मोल लेगा। उसी इलाके में जहाँ उसकी आय की औसत साल भर में तीन आने रोजाना भी न होती थीअब आठ-दस आने हो गई। दूर-दूर के गाँवों में अब वह मजदूरी करता। कटाई के दिनों में दिन-रात काम करता - फसल काटतादाने निकालताखलिहानों में अनाज भरतानीरा डाल कर भूसे के कुप बनाता। बीजाई के दिनों में हल चलाताक्यारियाँ बनाताबिजाई करता। उन दिनों उसे पाँच आने से ले कर आठ आने रोजाना तक मजदूरी मिल जाती। जब कोई काम न होता तो प्रातः उठ करआठ कोस की मंजिल मार कर मंडी जा पहुँचता और आठ-दस आने की मजदूरी करके ही घर लौटता। उन दिनों से वह रोज छह आने बचाता आ रहा था। इस नियम में उसने किसी तरह की ढील न होने दी थी। उसे जैसे उन्माद-सा हो गया था। बहिन कहती - 'बाकरअब तो तुम बिलकुल ही बदल गए हो। पहले तो तुमने कभी ऐसा जी तोड़ मेहनत न की थी।' बाकर हँसता और कहता - 'तुम चाहती होमैं आयु भर निठल्ला रहूँ?'

बहन कहती - 'निकम्मा बैठने को तो मैं नहीं कहतीपर सेहत गँवा कर रुपया जमा करने की सलाह भी नहीं दे सकती।'

ऐसे अवसर पर सदैव बाकर के सामने उसकी मृत पत्नी का चित्र खिंच जाताउसकी अंतिम अभिलाषा उसके कानों में गूँज जाती। वह आँगन में खेलती हुई रजिया पर एक स्नेहभरी दृष्टि डालता और विषाद से मुस्करा कर फिर अपने काम में लग जाता था। और आज - डेढ़ वर्ष के कड़े परिश्रम के बाद वह अपनी चिर-संचित अभिलाषा पूरी कर सका था। उसके एक हाथ में साँड़नी की रस्सी थी और नहर के किनारे-किनारे वह चला जा रहा था।

साँझ की बेला थी। पश्चिम की ओर डूबते सूरज की किरणें धरती को सोने का अंतिम दान कर रही थीं। वायु में ठंडक आ गई थीऔर कहीं दूर खेतों में टटिहरी टीहूँ-टीहूँ करती उड़ रही थी। बाकर के मन में अतीत की सब बातें एक-एक करके आ रही थीं। इधर-उधरकभी-कभी कोई किसान अपने उँट पर सवार जैसे फुदकता हुआ निकल जाता था और कभी-कभी खेतों से वापस आने वाले किसानों के लड़के बैलगाड़ी में रखे हुए घास पट्ठे के गट्ठों पर बैठेबैलों को पुचकारतेकिसी गीत का एक-आध बंद गातेया बैलगाड़ी के पीछे बँधे हुए चुपचाप चले आनेवाले ऊँटों को थूथनियों से खेलते चले जाते थे।

बाकर नेजैसे स्वप्न से जागते हुएपश्चिम की ओर अस्त होते हुए अंशुमाली की ओर देखाफिर सामने की ओर शून्य में नजर दौड़ाई। उसका गाँव अभी बड़ी दूर था। पीछे की ओर हर्ष से देख कर और मौन रूप से चली आनेवाली साँड़नी को प्यार से पुचकार कर वह और भी तेजी से चलने लगा - कहीं उसके पहुँचने से पहले रजिया सो न जायइसी विचार से। मशीरमाल की काट नजर आने लगी। यहाँ से उसका गाँव समीप ही था। यही कोई दो कोस। बाकर की चाल धीमी हो गई और इसके साथ ही कल्पना की देवी अपनी रंग-बिरंगी तूलिका से उसके मस्तिष्क के चित्रपट पर तरह-तरह की तस्वीरें बनाने लगी। बाकर ने देखाउसके घर पहुँचते ही नन्हीं रजिया आह्लाद से नाच कर उसकी टाँगों से लिपट गई है और फिर डाची को देख कर उसकी बड़ी-बड़ी आँखें आश्चर्य और उल्लास से भर गई हैं। फिर उसने देखावह रजिया को आगे बैठाए सरकारी खाले (नहर) के किनारे-किनारे डाची पर भागा जा रहा है। शाम का वक्त हैठंडी-ठंडी हवा चल रही है और कभी-कभी कोई पहाड़ी कौवा अपने बड़े-बड़े पंख फैला और अपनी मोटी आवाज से दो-एक बार काँव-काँव करके ऊपर से उड़ता चला जाता है। रजिया की खुशी का वारापार नहीं। वह जैसे हवाई-जहाज में उड़ी जा रही हैफिर उसके सामने आया कि वह रजिया को लिए बहावलनगर की मंडी में खड़ा है। नन्हीं रजिया मानो भौचक्की-सी है। हैरान और आश्चर्यान्वित-सी चारों ओर अनाज के इन बड़े-बड़े ढेरोंअनगिनत छकड़ों और हैरान कर देनेवाली चीजों को देख रही है। बाकर साह्लाद उसे सबकी कैफियत दे रहा है। एक दुकान पर ग्रामोफोन बजने लगता है। बाकर रजिया को वहाँ ले जाता है। लकड़ी के इस डिब्बे से किस तरह गाना निकल रहा हैकौन इसमें छिपा गा रहा है - यह सब बातें रजिया की समझ में नहीं आतींऔर यह सब जानने के लिए उसके मन में जो कुतूहल और जिज्ञासा हैवह उसकी आँखों से टपकी पड़ती है।

वह अपनी कल्पना में मस्त काट के पास से गुजरा जा रहा था कि सहसा कुछ विचार आ जाने से रुका और काट में दाखिल हुआ।

मशीरमाल की काट भी कोई बड़ा गाँव न था। इधर के सब गाँव ऐसे ही हैं। ज्यादा हुए तो तीस छप्पर हो गए। कड़ियों की छत का या पक्की ईंटों का मकान इस इलाके में अभी नहीं। खुद बाकर की काट में पंद्रह घर थेघर क्या झुग्गियाँ थी! सिरकियों के खेमे - जिन्हें झोपड़ियों का नाम भी न दिया जा सकता था। मशीरमाल की काट भी ऐसे ही बीस-पच्चीस झुग्गियों की बस्ती थीकेवल मशीरमाल का निवास-स्थान कच्ची ईंटों से बना थापर छत उस पर भी छप्पर की ही थी। बाकर नानक बढ़ई की झुग्गी के सामने रुका। मंडी जाने से पहले वह यहाँ डाची का गदरा (पलान) बनाने के लिए दे गया था। उसे ख्याल आया कि यदि रजिया ने साँड़नी पर चढ़ने की जिद कीतो वह उसे कैसे टाल सकेगाइसी विचार से वह पीछे मुड़ आया था। उसने नानक को दो-एक आवाजें दीं। अंदर से शायद उसकी पत्नी ने उत्तर दिया - 'घर में नहीं हैं,मंडी गए हैं।' बाकर का दिल बैठ गया। वह क्या करेयह न सोच सका। नानक यदि मंडी गया हैतो गदरा क्या खाक बना कर गया होगा! फिर उसने सोचाशायद बना कर रख गया हो। इससे उसे कुछ सांत्वना मिली। उसने फिर पूछा - 'मैं साँड़नी का पलान बनाने के लिए दे गया थावह बना या नहीं।'

जवाब मिला - 'हमें मालूम नहीं।'

बाकर का आधा उल्लास जाता रहा। बिना गदरे के वह डाची को क्या ले कर जाय। नानक होता तो उसका गदरा चाहे न बना सकताकोई दूसरा ही उससे माँग कर ले जाता। यह विचार आते ही उसने सोचा - 'चलो मशीरमाल से माँग लें। उनके तो इतने ऊँट रहते हैंकोई न कोई पुराना पलान होगा ही। अभी उसी से काम चला लेंगे। तब तक नानक नया गदरा तैयार कर देगा।यह सोच कर वह मशीरमाल के घर की ओर चल पड़ा। अपनी मुलाजमात के दिनों में मशीरमाल साहब ने पर्याप्त धनोपार्जन किया था। जब इधर नहर निकलीतो उन्होंने अपने पद और प्रभाव के बल पर रियासत में कौड़ियों के मोल कई मुरब्बे जमीन ले ली थी। अब नौकरी से अवकाश ग्रहण कर यहीं रह रहे थे। राहक (मुजारा) रखे हुए थेआय खूब थी और मजे से जीवन व्यतीत हो रहा था। अपनी चौपाल में एक तख्तपोश पर बैठे वे हुक्का पी रहे थे - सिर पर श्वेत साफागले में श्वेत कमीजउस पर श्वेत जाकेट और कमर में दूध जैसे रंग का तहमद। गर्द से अटे हुए बाकर को साँड़नी की रस्सी पकड़े आते देख कर उन्होंने पूछा - 'कहो बाकरकिधर से आ रहे हो? 'बाकर ने झुक कर सलाम करते हुए कहा - 'मंडी से आ रहा हूँमालिक।' 'यह डाची किसकी है?'

'मेरी ही है मालिकअभी मंडी से ला रहा हूँ।'

'कितने की लाए हो?' बाकर ने चाहाकह दे आठ बीसी की लाया हूँ। उसके ख्याल में ऐसी सुंदर डाची 200में भी सस्ती थीपर मन न मानाबोला - 'हुजूर माँगता तो 160 थापर साढ़े सात बीसी ही में ले आया हूँ।

मशीरमाल ने एक नजर डाची पर डाली। वे स्वयं अर्से से एक सुंदर-सी डाची अपनी सवारी के लिए लेना चाहते थे। उसके डाची तो थीपर पिछले वर्ष उसे सीमक (ऊँटों की एक बीमारी) हो गया था और यद्यपि नील इत्यादि देने से उसका रोग तो दूर हो गया था पर उसकी चाल में वह मस्तीवह लचक न रही थी। यह डाची उनकी नजरों में जँच गई। क्या सुंदर और सुडौल अंग हैक्या सफेदी मायल भूरा-भूरा रंग हैक्या लचलचाती लंबी गर्दन है! बोले - 'चलो हमसे आठ बीसी ले लोहमें एक डाची की जरूरत हैदस तुम्हारी मेहनत के रहे।' बाकर ने फीकी हँसी के साथ कहा - 'हुजूरअभी तो मेरा चाव भी पूरा नहीं हुआ।'मशीरमाल उठ कर डाची की गर्दन पर हाथ फेरने लगे - 'वाहक्या असील जानवर है।प्रकट बोले - 'चलो,पाँच और ले लेना।' और उन्होंने आवाज दी - 'नूरेअरे ओ नूरे!' नौकर भैंसों के लिए पट्ठे कतर रहा था,गँड़ासा हाथ ही में लिए भाग आया। मशीरमाल ने कहा, 'यह डाची ले जा कर बाँध दो! 165 में,कहो कैसी है?' नूरे ने हतबुद्धि-से खड़े बाकर के हाथ से रस्सी ले ली और नख से शिख तक एक नजर डाची पर डाल कर बोला, 'खूब जानवर है', और यह कह कर नौहरे (भूसा आदि रखने का स्थान) की ओर चल पड़ा।

तब मशीरमाल ने अंटी से 60 रुपए के नोट निकाल कर बाकर के हाथ में देते हुए मुस्करा कर कहा, 'अभी एक राहक दे कर गया हैशायद तुम्हारी ही किस्मत के थे। अभी यह रखो बाकी भी एक-दो महीने तक पहुँचा दूँगा। हो सकता हैतुम्हारी किस्मत से पहले ही आ जाएँ।और बिना कोई जवाब सुने वे नौहरे की ओर चल पड़े। नूरा फिर चारा कतरने लगा था। दूर ही से आवाज दे कर उन्होंने कहा, 'भैंसे का चारा रहने देपहले डाची के लिए गवारे का नीरा कर डालभूखी मालूम होती है!' और पास जा कर साँड़नी की गर्दन सहलाने लगे। कृष्णपक्ष का चाँद अभी उदय नहीं हुआ था। विजन में चारों ओर कुहासा छा रहा था। सिर पर दो-एक तारे निकल आए थे और दूर बबूल और ओकाँह के वृक्ष बड़े-बड़े काले सियाह धब्बे बना रहे थे। फोग की एक झाड़ी की ओट में अपनी काट के बाहर बाकर बैठा उस क्षीण प्रकाश को देख रहा था, जो सरकंडों से छिन-छिन कर उसके आँगन से आ रहा था। जानता था रजिया जागती होगीउसकी प्रतीक्षा कर रही होगी। वह इस इंतजार में था कि दिया बुझ जायरजिया सो जाय तो वह चुपचाप अपने घर में दाखिल हो।

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रचनाएँ
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उपेन्द्र नाथ ‘अश्क’/ जीवन परिचय

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उपेन्द्र नाथ अश्क जी का जन्म पंजाब प्रान्त के जालंधर नामक नगर में 14 दिसम्बर, 1910 को एक मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। अश्क जी छ: भाइयों में दूसरे हैं। इनके पिता पण्डित माधोराम स्टेशन मास्टर थे। जालंधर से मैट्रिक और फिर वहीं से डी. ए. वी. कॉलेज से इन्होंने 1931 में बी.ए. की परीक्षा पास की।

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रामदयाल पूरा बहुरूपिया था। भेस और आवाज बदलने में उसे कमाल हासिल था। कॉलेज मे पढ़ता था तो वहाँ उसके अभिनय की धूम मची रहती थी; अब सिनेमा की दुनिया में आ गया था तो यहाँ उसकी चर्चा थी। कॉलेज से डिग्री लेते ही उसे बम्बई की एक फिल्म-कम्पनी में अच्छी जगह मिल गयी थी और अल्प-काल ही में उसकी गणना भारत के श्रे

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