कल्लो का सरौता
काली तो वह कतई न थी फिर भी नाम उसका कल्लो ही था। जिज्जी ने पूछा,
"तू इतनी काली तो ना है फिर यह नाम क्यों रख लिया?"
"यह लो जिज्जी! कोई अपना नाम अपने से रखे है क्या? जो मां-बाप ने रखा सो मान लिया।"
"वह तो ठीक है पर जो तेरा मरद तुझे कल्लो कह के बुलाता होगा तो छुरियां न चल जाती होंगी तेरे कलेजे पे।"
"हटो जी, वह काहे को कल्लो को कहने लगा। वह तो मधुबाला कह के बुलाता है," इतना कह कर कल्लो फिस्स से हंस दी।
"अच्छा! अच्छा! ओए मेरी ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्मों की मधुबाला ज़रा अपना सरौता दे। मेरा वाला तो काम ही नहीं कर रहा है।"
"जिज्जी, अब ये अपना सरौता बदल ही डालो। कब का दम तोड़ चुका है और एक तुम हो कि हमहुं से मांग-मांग के काम चला रही हो।"
कल्लो और जिज्जी के बीच इसी तरह का वार्तालाप कुछ दिनों से नियमित होता आ रहा था। जब से जिज्जी के सरौते ने नखरे दिखाने शुरू किए थे उनकी नज़र कल्लो के सरौते पर थी। वह किसी ना किसी बहाने पहले कल्लो से हल्के-फुल्के मज़ाक के अंदाज़ में कोई बात शुरू करतीं जिसका अंत उससे सरौता मांगने में हुआ करता। कल्लो भी एक नंबर की बेशरम थी। वह अपने सरौते को हाथ न लगाने देती। कोई न कोई बहाना बना देती या फिर अनसुनी कर जाती। यह सरौता उसके मरद ने उसे तोहफे में दिया हुआ था। वह उसे अपनी धोती के छोर में बांध कमर में खोंसे रहती।
"अरी दे ना! उसे खा नहीं जाउंगी। बस दो-चार छालियां काट लूंगी।"
"छोड़ो भी जिज्जी, कल्लो के होते तुम काम करोगी। लाओ छालियां मैं ही काट देती हूं तुम तब तक एक बार और सुंदर कांड पढ़ आओ। सबेरे तुमने ठीक ना पढ़ा रहा।"
"मैंने ठीक ना पढ़ा? तेरा दिमाग़ तो ठिकाने पर है? तू शास्त्री जी की बिटिया से कह रही है कि उसने सुंदर कांड ठीक से ना पढ़ा।"
"तुम बात का बतंगड़ न बनाओ जिज्जी। सच तो यह है कि अब तुम्हारा मन पूजापाठ में नहीं लगता।"
"मेरा मन पूजापाठ में नहीं लगता? मैं भी तो जानूं भला ऐसी गलतफहमी हमारी कल्लो रानी को क्यों हो गई है?"
"सच-सच बता दूं जिज्जी?"
"और क्या झूठ बताने को बोल रही हूं।"
"छोड़ो, तुम गुस्सा हो जाओगी।"
"अब नखरे मत दिखा, बता भी दे।"
"जिज्जी, ये लो तुम्हारी छालियां काट दी हैं। शाम तक के लिए काफ़ी हैं। आगे की तुम और तुम्हारा आदम बाबा के ज़माने का सरौता जाने। मेरे सिर पर ढेर सारे काम पड़े हैं। मुझे तुमसे चोंच लड़ाने की फुर्सत ना है।"
इस तरह कल्लो जिज्जी को गच्चा दे कर उस दिन भी अपने सरौते को उनके हाथों में जाने से बचा गई। जिज्जी ने एक लंबी सांस खींची और कटी हुई छालियों पर एक निगाह डाली। उन्हें देख कर मन में सोचा कि कुछ भी कहो ससुरी छालियां अच्छे से कतर गई है। बातों के साथ काम भी ठीकठाक कर ही लेती है। फिर भी देखती हूं कब तक अपने सरौते को मुझसे बचाएगी। मैं भी शास्त्री जी की बिटिया नहीं अगर उसे अपने हाथों से उस सरौते को देने के लिए मजबूर न कर दूं।
अगले दो दिन कल्लो का काम पर आना न हुआ। जिज्जी जो नये-नये दांव-पेचों के साथ सरौता हथियाने की योजनाएं बनाये हुए थीं, वे सब धरी की धरी रह गईं। आज सबेरे से बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी। रुक-रुक कर कभी धीमे कभी तेज हुए जा रही थी। जिज्जी ने सोचा कि आज भी लगता है कल्लो नहीं आयेगी। तभी उसका आगमन हो गया। हमेशा की तरह जिज्जी के साथ ठिठोली करने के बजाय वह सीधे काम पर जुट गई।
"हाय! हाय! ऐसी भी क्या पड़ी थी जो तू इतनी बारिश में आ धमकी। दो चार दिन और रुक जाती।"
जिज्जी ने ताने सुनाते हुए कल्लो को छेड़ने की कोशिश शुरू कर दी। किन्तु उस पर आज कोई असर नहीं हुआ। वह सिर झुकाए अपने काम में लगी रही। जिज्जी ने अब नया दांव चला,
"कोई है जो शास्त्री जी की बिटिया के घुटनों में तेल की मालिश कर दे। यहां तो लगता है सब गूंगे बहरे हो गए हैं। ये बरसाती हवा तो जान ही निकाले ले रही है।"
अब कल्लो से चुप न रहा गया,
"ये नौटंकी तो हमारे साथ मत ही किया करा करो जिज्जी। सीधे-सीधे बताओ कि तेलमालिश करनी है। वैसे तेल है कहां वह तो खतम हो गया था।"
"अरी नासपीटी वैद्य जी वाला तेल खतम हुआ था, रसोईघर में कोई कमी थोड़े ही ना है।"
"तुम रसोई वाला तेल लगवाओगी! सठिया तो नहीं गई हो।"
"मैं क्यों सठियाओंगी, तुझी को कुछ हो गया है। जब से आई है मुंह फुलाए बैठी है। एक बार भी नहीं पूछा जिज्जी कैसी हो।"
"तुमने पूछा ये कल्लो कैसी है? मर-खप तो नहीं गई। इतने दिन काम करने क्यों नहीं आई? ये न हुआ दो क़दम चल कर उसकी कोठरी तक हो लूं। हालचाल ही पूछ आऊं"
"हाय, हाय। तेरे को क्या हुआ? अच्छी-भली तो दिख रही है।"
जिज्जी का इतना कहना भर था कि कल्लो का बुक्का फाड़ कर रोना शुरू हो गया। उसको इस तरह रोता देख जिज्जी का दिल धक्क से रह गया। ज़रूर बेचारी पर कोई मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा है वरना ये शूर्पनखा की तरह आजतक कभी ना रोई। जिज्जी जो अभी थोड़ी देर पहले ही अपने घुटने पकड़े बैठी थीं फौरन दौड़ पड़ीं। उसके माथे पर अपनी हथेली रख कर बोलीं,
"बुखार तो ना है तुझे फिर क्यों कलेजा चीर रही है।"
"दैया रे दैया, बुखार पर भी कोई रोता है क्या?"
"तो क्या हुआ, कुछ बताएगी भी। राम प्रसाद कोई सौतन तो नहीं ले आया।"
"ला के तो देखे। झोंटा पकड़ के उसका सर न मूंड दूंगी।"
"जा, जा। तू कुछ ना कर पाएगी।"
"कैसे ना कर पाउंगी। बस सामने तो आये।"
"ओय होय, मतलब यह कि राम प्रसाद ने वाकई तेरी सौतन ढूंढ़ ही ली।"
"इतना न उछलो जिज्जी। अभी तो मरदुए ने धमकी ही दी है।"
"सिर्फ़ धमकी! उसी पर बुक्का फाड़ के ये रोआ-राट! तू भी कल्लो एक ही नमूना है।"
"बिल्कुल यही वह भी कहता है।"
"कौन, राम प्रसाद?"
"और कौन!"
"और क्या-क्या कहता है वह अपनी मधुबाला को।"
"हाय, हाय जिज्जी तुम बड़ी वह हो।"
"हां, मैं भी कभी बड़ी वह थी तो। लेकिन तू इतनी भोली है, ये ना पता था मुझे। ये सब मरदों के प्यार मोहब्बत जताने के चोंचले हैं।"
"सच्ची?"
" वह तुझे मधुबाला कहता है?
"वह तो कहता है।"
"नमूना कहता है?"
"वह भी कहता है।"
"सौतन लाने की धमकी देता है?"
"हां वह भी।"
"बस, चोंचलेबाजी है सब!"
"लेकिन उसने मेरा सरौता जो छुपा दिया है।"
"सरौता? यह सरौता बीच में कहां से आ गया।"
"ठीक यही, ठीक यही जिज्जी वह भी बोलता है।"
"उसने ऐसा कब बोला?"
कल्लो ने जिज्जी को घूर कर देखा और फिस्स से हंस दी।
"तुम भी जिज्जी! जाओ एक बार फिर सुंदर कांड बांच आओ।"
"आये हाये, ऐसे कैसे बांच आऊं। तू सरौता ले के ना आई। मेरी छालियों का क्या होगा?"
"वाह जिज्जी वाह। अभी तक वही पुराना वाला गले लगाए बैठी हो। देखो तो हथेलियों में कैसी गांठें पड़ गई हैं।"
"नया भी ले आती फिर सोचा कि जब तेरे पास है तो मैं नया ले के क्या करूंगी।"
"ना जिज्जी, ये तो ग़लत बात है। नया तो लेना ही पड़ेगा। दो दिन से मैंने भी छालियां नहीं खाईं हैं। सोच रही थी कि तुम नया ले आई होगी तो अपने लिए भी काट कर ले चलूंगी।"
जिज्जी और कल्लो जब आपस में चोंचें लड़ा रही थीं, उसी बीच राम प्रसाद बारिश में भीगते हुए दरवाजे पर आ खड़ा हुआ था। उसके हाथ में कल्लो का सरौता था। दो दिनों से वह उसे छुपाए हुए था। वह यह भी देख रहा था कि बगैर छालियों के कल्लो कैसी तड़प रही है। आज जब कल्लो काम के लिए निकली तो उसे महसूस हुआ कि छालियों के लिए तड़पती कल्लो पता नहीं कैसे काम कर पाएगी। इसीलिए वह सरौता और कटी हुई छालियां ले कर बारिश में भीगता-भीगता आ पहुंचा था। अब जब कल्लो और जिज्जी की बातचीत सरौते पर आ कर टिकी हुई थी उसने अपना गला खंखार कर बताया कि वह दरवाजे पर खड़ा भीग रहा है।
"अरे राम प्रसाद तू कब आया? खड़ा-खड़ा भीग क्यों रहा है, भीतर आ जा।"
"मैं यहीं ठीक हूं मालकिन। ज़रा कल्लो को भेजना।"
"तू क्यों चला आया?" , कल्लो बोली।
राम प्रसाद ने इशारे से कल्लो को अपने पास आने को कहा। पास आते ही पोटली में रखी कटी हुई छालियां और सरौता उसे सौंप दिया।
"अरे सरौता भी है!"
"तेरा मन कैसे बदल गया?"
"हुश्श! घर पहुंचना तब बताउंगा।"
"काम पर नहीं जाएगा क्या?"
"अरी इस बरसात में कोई अपनी मधुबाला को छोड़ कर काम पर जाता है?"
कल्लो ने फिस्स से हंस दिया और गर्दन झुका ली। जिज्जी न देख रही होतीं तो वहीं दरवज्जे पर वह राम प्रसाद को चूम लेती। राम प्रसाद के जाते ही कल्लो मुड़ी और जिज्जी की तरफ़ देख कर ख़ुशी से चिल्लाई,
"जिज्जी, वह सरौता दे गया है।"
उसके बाद तेजी से चलने के लिए जैसे ही कल्लो ने क़दम बढ़ाये बरसते पानी में आंगन की फिसलन पर वह धड़ाम से जा गिरी। उसको फिसलने से बचाने के लिए जिज्जी भीअपने घुटनों के दर्द को भुला स्वयं आंगन में निकल आईं और वह भी फिसल कर गिर पड़़ीं। बरसते पानी में भीगती हुईं जिज्जी और कल्लो खुश थीं कि कल्लो का सरौता वापस आ गया है।
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