गढ़ैया ताल का रहस्य
यह उन दिनों की बात है जब हम सब का गर्मियों की छुट्टियों में हर साल कभी नानी के, कभी मामा के घर तो कभी दादा-दादी के गांव आनाजाना लगा रहता था। शहरों की आपाधापी से निजात पा क्या बच्चे, क्या नौजवान सभी उत्साह और उमंग के साथ गांवों में इन छुट्टियों का भरपूर आनंद लूटा करते थे। अमराई में बिताई गर्मियों की वह दोपहरियां, तालाब में घंटो तैरते-तैरते नहाना, झड़बेरी की झाड़ियों से तोड़ कर खाई गईं खट्टी मीठी बेरियों का वह स्वाद कैसे भुलाया जा सकता है।
उस साल हम सब मामा के यहां गये हुए थे। मेरी उम्र तब सत्रह, अठारह साल की रही होगी। यह वही खतरनाक दौर था जिसमें प्रायः नौजवान अपनी सामर्थ के बारे में गलतफहमियां पालने लगते हैं और समझते हैं कि वह जिस भी कुंआरी कन्या की ओर नज़र उठा कर देख लेंगे वह उन पर लट्टू हो जायेगी। मैं भी उसी दौर से गुजर रहा था और मैंने अपने लिए एक अदद प्रेमिका तलाश ली थी, लेकिन गांव में सबके सामने उससे खुल कर बातचीत नहीं की जा सकती थी। इसमें मेरी मददगार बनी मेरी हमउम्र ममेरी बहन माला। वह उसे सैर के बहाने गांव के बाहर ले आती और मैं वहां पहले से ही मौजूद होता था। इस तरह हमारी मुलाकात का सिलसिला चल निकला। हम तीनों को इस बात की ज़रा भी फ़िक्र न थी कि इस सब का अंजाम क्या हो सकता है? चोरी का गुड़ कुछ ज़्यादा ही मीठा हुआ करता है और हम तीनों उसके रसास्वादन में सब कुछ भूले हुए थे।
गांव के उत्तर में थोड़ी दूर पर एक तालाब था जिसे सब लोग स्थानीय बोली में गढ़ैया ताल कहा करते थे क्योंकि यह थोड़ा नीचाई पर था और ऊपर से एक गड्ढा जैसा दिखता था। चूंकि गांव के पास ही एक नहर निकली हुई थी इसलिए पानी की आवश्यकता के लिए गांव वालों को इस तालाब तक आने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। उस दिन भी माया मेरी प्रेमिका को उस के घर से सैर के बहाने गांव के बाहर ले आई। हमारा मिलना गढ़ैया ताल पर तय हुआ था।
जब हम तीनों तालाब के निकट मिले, तो वहां का माहौल बहुत ही खुशनुमा हो रहा था। हल्की, हल्की सुगंधित बयार बह रही थी। वह सुगंध मुझे महुए और रातरानी की मिश्रित-सी जान पड़ी थी लेकिन वह महुए का मौसम नहीं था। उसके वृक्ष तो नंगे खड़े थे और आसपास रातरानी भी कहीं नहीं दिखती थी। प्रेमिका से मिलने की आतुरता में तब यह सब मुझे कहां सूझा था? हम तीनों तालाब के किनारे बैठ कर इधर-उधर की बातें करने लगे। आस-पास घनी झाड़ियां थीं, इसलिये दूर से किसी को हम एक दम से नज़र नहीं आ सकते थे। माया बीच-बीच में दो-चार मिनट के लिये इधर-उधर भी चली जाती थी, ताकि हम दोनों प्रेमी आपस में खुल कर बातचीत कर सकें।
बातों-बातों में हमें समय गुजरने का पता ही नहीं चला। जब सूर्य अस्त हो गया, तो मैंने स्वयं कहा,
"मेरे ख़्याल में हमें अब गांव वापस चलना चाहिये।"
दोनों लड़कियों ने कुछ जवाब नहीं दिया, जिसका मतलब यही हो सकता था कि वे भी मुझसे सहमत थीं। इतने में ही मुझे अपने कानों में अजीब-सा शोर सुनाई देने लगा। मैं हैरानी में पड़ गया। मुझे लगा कि जैसे मेरे कान बज रहे हों। धीरे, धीरे उस घुले-मिले शोर में कुछ आवाजें अलग ही सुनाई देने लगीं। ढोल पीटे जा रहे थे, दुंदुभी बजाई जा रही थी और जब-तब तुरही की आवाजें उनके बीच सुनाई दे रही थी। आखिर यह सब क्या था? मैं आंखें फाड़-फाड़ कर तालाब और उस के आस-पास देखने की कोशिश कर रहा था। कुछ नज़र नहीं आया, लेकिन वे आवाजें मेरी कानों में बराबर पहुंच रही थीं। मेरे दांये-बांये दोनों लड़कियां बैठी थीं। मैंने उनकी ओर देखे बिना पूछा,
"क्या तुम लोगों को भी कुछ सुनाई दे रहा है?"
माया बोल उठी,
"हां। बाजे बज रहे हैं, ढोल पिट रहे हैं। किसी फ़ौज के जंग से लौट कर आने की आहट हो रही है।"
"...यों लगता है, जैसे कोई बड़ी-सेना धरती की छाती पर ज़ोर से पांव मारती हुई इधर ही बढ़ी चली आ रही है" , मेरी प्रेमिका ने भी माया की बात की तस्दीक कर दी।
यह शोर अब हमारे और भी निकट सुनाई देने लगा। मैंने मुड़ कर बांयी ओर देखा, जिधर मेरी प्रेमिका बैठी थी। उसे देख कर मैं सकते में आ गया-क्यों कि वह पुराने ज़माने की स्त्रियों के वस्त्रों में दिखाई दी। उसके पैरों में बेड़ियां पड़ी थीं, हाथ पीछे बंधे थे। मैने जल्दी से दायीं ओर अपनी बहन माया को देखा। वह भी उसी तरह की दशा और वेषभूषा में नज़र आ रही थी। यकायक मुझे अपने बारे में ख़्याल आयाऔर मैंने अपने-आप पर नज़र डाली, तो देखा कि मेरे अपने वस्त्र पुराने ज़माने के सैनिकों की तरह थे और मेरे हाथों में उस रस्सी की बागडोर थी जिससे माया और उसकी सहेली को बंदी बनाया गया था। आश्चर्य से मेरे मुंह से कोई आवाज़ न निकल सकी।
इतने में ही वह शोर स्वयं कम होने लगा, और धीरे-धीरे बिलकुल ही समाप्त हो गया जैसे वह सेना अब बहुत दूर चली गयी हो। एक झुरझुरी-सी ले कर मैंने अपनी साथ वाली लड़कियों की ओर देखा। अब वह पहले जैसी हो गई थीं। अब उनके वस्त्र वही थे जिन्हें पहन कर वह घर से चली थीं। मैं भी पूर्ववर्त हो गया था।
उस रहस्यमय गढ़ैया ताल से हम घर तक कैसे पहुंचे, हमें याद नहीं। हम में से किसी ने इस बात का ज़िक्र कभी किसी से नहीं किया। आज उस घटना को याद करने की वज़ह है यह किताब जो अचानक मेरे हाथ लगी है, जिसका नाम है"लेजेंड ऑफ़ द लेक" और इसमें उसी गढ़ैया ताल का ज़िक्र है। किताब की शुरूआत इन पंक्तियों से है और मैं जानता हूं कि आज इस किताब को पूरा पढ़े बगैर मुझे नींद नहीं आयेगी।
" ...उसके परे झुरमुटों से
चले आ रहे हैं
मित्रों उन सिपाहियों की ओर मत देखो।
उन नगाड़ोंऔर दुंदुभी की आवाजों को मत सुनो।
कहीं ऐसा न हो कि उनकी नजरें तुम से मिल जायें।
पीछे, और भी पीछे हटो, उन्हें गुजर जाने दो।
वरना तुम भी उनके साथ हो लोगे।
वे सब मर चुके हैं, वे चलती फिरती लाशें हैं!
वे मौत के फरिश्ते हैं, आंखें बंद कर लो।"
***