ओलम्पिक शब्द पढ़ते या सुनते ही मन खेल की एक अच्छी भावना से ओत प्रोत हो जाता है। पर अब इससे दूर दूर तक़ कोई वास्ता नहीं है। जितना सुनने में या पढ़ने में आ गया बस वही श्रद्धा बची है। उसी श्रद्धा के तहत मैं उन सभी खिलाड़ियों के लिये तहे दिलसे तालियां जरूर बजाती हूँ जिन्होंने खेल में भाग लिया और जिन्होंने अपनी ज़ी तोड़ मेहनत से देश का,अपना व अपने परिवार का नाम रोशन किया।
आज मुझे अपने बचपन का एक किस्सा याद आ गया सोच रही हूँ सुना दूँ। ज़ब मेरे पापा हम सभी की पढ़ाई के चक्कर में गांव से शहर शिफ्ट हुए थे। उस वक़्त में कक्षा सात में पढ़ती थी। मेरे दादाजी दादी गांव में ही रहते थे। चुंकि मेरा मन पढ़ाई में तो लगता नहीं था पूजा पाठ घर के कामों में ज्यादा लगता था।
अतः शांत प्रवत्ति की होने के कारण दादाजी मुझे अपने साथ गांव में ही रखना चाहते थे।पर पापा मेरे भविष्य को देखते हुए एक साल बाद ही मुझे वहाँ से वापस ले आये थे क्योंकि उन्हें शिक्षा से बड़ा प्रेम था। वो हमेशा कहा करते थे.. शिक्षा की जड़े कड़वी हैं परन्तु फल मीठे हैं।ये बात मेरे दिमाग़ में भी घर कर गई थी। पर पढ़ाई मेरे भेजे में घुसती ही नहीं थी।
खैर पापा ने मेरा एड्मिशन शहर के इंटर कॉलेज में करा दिया था । गांव और शहर की पढ़ाई में जमीन आसमान का अंतर था। देखकर घबरा गई और वापस गांव जाने की जिद करने लगी। पर पापा ने एक न सुनीऔर मम्मी से कहने लगे अगर इसने पढ़ाई नहीं की तो इसकी शादी किसी गांव में कर देंगे ताकि खूब चूल्हा चौका कर सके। मैं आपने आप को घूंघट मारे रोटी बनाते दिखाई देने लगी।
उसके बाद मैंने कभी स्कूल जाने के लिये मना नहीं किया।
धीरे धीरे उस माहौल में अपने आप को एडजेस्ट करने लगी। हमारे स्कूल में लास्ट पीरियड खेल का होता था। जहाँ लॉन्ग जम्प, हाई जम्प, 400 मीटर,200 मीटर दौड़, बॉली बॉल बेडमिंटन, कबड्डी और भी खेल खिलाये जाते थे। मैं भी भाग लेती थी। बड़ा मजा आता था मुझे खेलों में।
मेरी खेल वाली टीचर ने मुझमें न जाने ऐसा क्या देख लिया की मुझे बॉलीबॉल, बेडमिंटन और कबड्डी में सेलेक्ट कर लिया। मुझे भी खुशी हुई सेलेक्ट किये जाने की। एक बार कबड्डी में मैंने एक काफ़ी मोटी लड़की को अकेले ही धर दवोचा। फिर क्या था कबड्डी चैम्पयन हो गई मैं। मुझे स्कूल से बाहर भी ले जाया जाने लगा। पापा ने भी मना नहीं किया टीम के साथ जाने दिया। वहाँ से भी टीम को जिता लाई। सब मेरी बहुत प्रशंसा करने लगे।
पर मुझे कहीं न कहीं ये बात दिमाग़ में आने लगी की खेल वाली लड़कियां गधी होती हैं और उन्हें अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता तभी खेल में जाती हैं.। उस वक़्त में गधी ही थी। अतः मुझे अपने सेलेक्ट होने का यहीं कारण समझ में आने लगा। मैंने तुरंत पीछे हटने का मन बना लिया। मुझे बदनाम लड़की नहीं बनना था।
एक बार में खेल के पीरियड में खेलने गई ही नहीं। टीचर ने दो दो तीन तीन बार बुलबाया पर उस वक़्त मैं डीठ हो गई। क्लास में ही अड़ी बैठी रही। अगले दिन फिर टीचर ने बुलवाया मैंने फिर वही किया। टीचर को गुस्सा आना स्वाभाविक था। तीसरे दिन प्रेयर में ही पकड़ लिया उन्होंने मुझे जमकर डांट लगाई। मैं रोने लगी। उन्होंने मुझे कान पकडकर खड्क बैठक लगवाई मैंने वो भी लगाई। पर खेलों की तरफ मुड़कर नहीं देखा। अब मेरा पढ़ाई की तरफ मुड़ना स्वाभाविक था। मैं उन लड़कियों की तरफ आकर्षित होने लगी जो क्लास में नंबर वन थी।
उन्होंने मुझे पढ़ाकू का ख़िताब दे दिया। जो मुझे दुआ बनकर लगा।मैंने ख़ुशी से ले लिया और ज़ब कॉलेज से निकली तो उसी ख़िताब के साथ निकली। ज़ब मेरी खेल की टीचर ने मुझे यहां देखा तो उनकी नाराजगी मुझसे दूर हो गई और मुस्कराने लगी। पर मेरा खेलों से प्रेम गया नहीं अब भी है। वो बात और है की अब घर के ओलम्पिक खेल रही हूँ और मैडल भी पा रही हूँ. कभी स्वर्ण कभी सिल्वर तो कभी काँस्य।
@ vineetakrishna
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