"वसुधैव कुटुंबकम "की परम्परा को चलाने की इच्छा रखने वाली मीरा की सोच को नये ज़माने ने हवा में उछाल दिया था। उस वक़्त वह मन मार कर रह गईं थी।
परिवार के सदस्यों ने अपने अपने परिवार की सुख सुविधाओं व ख़ुशी के लिये, एक दूसरे से अलग थलग होने का निर्णय ले लिया था। पिताजी का देहांत होते ही सम्पत्ति के बटवारे की होड़ लग गईं थी और माँ के बटवारे की भी। माँ का दर्द उसकी छाती से लिपटकर कितना रोया था! उस दर्द को सीने में छुपाये वह अपने ससुराल वापस आ गईं थी।
अच्छी सोच और अच्छे मन की मल्लिका होते हुए भी वह धन के अभाव में दीन हीन व कमजोर समझी जाने लगी थी। भाइयों के पास कमाई का पर्याप्त साधन होने की वजह से वो अमीरी का ताज लगाए सिकंदर हो गए थे।
पर वक़्त कहाँ एकसा रहता? समय ने करवट ली तो परिस्थितियां कुछ और रूप में ही सामने आई। माँ और भाइयों से बंटवारा तो हो गया था।. पर अब जो आये दिन अपने ही घर में ज़ब कलह कड़वाहट के किस्से बढ़ गए तो इनका बंटवारा कैसे हो? पति का पत्नी से या बाप का बच्चों से? संभव न था।
इस वक़्त उन्हें एक मात्र सहारे की किरन वहीं दीन हीन मीरा ही याद आई। जो बंटवारे के समय चाह के भी विरोध नहीं कर पाई थी। पर कहते है अच्छे विचार और अच्छाई कभी मरती नहीं है। ज़ब जीवन में घोर अंधेरा और निराशा आ जाती है तब एक ही आशा की किरन उजाले के लिये पर्याप्त होती है। इस वक़्त उन लोगों को मीरा के अलावा कोई शुभ चिंतक नज़र नहीं आ रहा था। माँ बाप के समय में पैसा जरूर कम था पर इतना गम नहीं था।
ज़ब भाइयों ने अपनी -2समस्याएं मीरा के समक्ष रखी तो मीरा ने फिर से परिवार को संगठित करने की बात रखी। आज मीरा की बात को टालने की किसी में हिम्मत न थी। मीरा ने अपने पिता की कुछ बातों को अपने मानसिक पटल पर उतार लिया था " देना ही पाने की राह है," ""बंद मुट्ठी लाख की खुली मुट्ठी खाक की " "कर्म करो फल की चिंता मत करो "वगैरह वगैरह। इन लकीरों को उसने अपने जीवन में चरित्राथ करके दिखाया।
भाइयों को मीरा की बात सही लगी और उन्होंने आपस में संगठित होने का मन बना लिया था। हालांकि मीरा अपनी जिंदगी की लड़ाई अकेले ही लड़ रही थी। पर उसे किसी भी परिवार का बिखराव पसन्द न था अतः वह विषम स्थितियों के बाद भाइयों के परिवार में घुसकर एकजुट करने का प्रयास कर रही थी।
मीरा अपने जीवन में हर उतार चढ़ाव, आंधी, तुफां, बारिश सबको झेल चुकी थी और झेल रही थी, पर कोई तो भी शक्ति थी जो उसे कमजोर नहीं पड़ने दे रही थी। वो किसी वटवृक्ष की तरह दोनों परिवारों का स्तम्भ बनकर ख़डी थी। तथा परिवार में हो रहे कलह को 'बरगद की ठंडी छाँव' देने की कोशिश कर रही थी।
मीरा भेद भाव से दूर एकांत में दूर दृश्ता की तरह सोचती थी। तथा सबको एक नज़र से देखती थी। उसकी लम्बी सोच और सुंदर मन उसके पूँजीपति और समृद्ध होने की निशानी थे। और उसका आत्मविश्वास बिना किसी भय के सबको सुरक्षित होने का अहसास दिलाता था। उसके संरक्षण में जो भी आता था वो भरपूर आश्रय देती थी। भाइयों को धीरे 2अपनी गलती का अहसास होने लगा था और वो अब मन का सुकून पाने मीरा के पास आने जाने लगे थे।
मीरा अब ज़ब कभी एकांत में बैठती तो सोचती शायद वो भी कभी किसी वटवृक्ष का हिस्सा रही होगी। तभी तो इतनी विषम परिस्थितियों में भी वो जीवटता से ख़डी रही और अपनी सोच को वटवृक्ष की तरह ही कार्यन्वित कर के दिखाया।
Vineetakrishna