काव्या के मन में" मेरा घर "को लेकर कई विचार आ जा रहे थे। किसको "अपना एक घर" कहे?..किसको नहीं?एक वो घर जहाँ बचपन बीता था । माँ बाप ने बड़े प्यार से पाला पोसा, पढ़ाया लिखाया,बड़ा किया। अपना सब कुछ लुटाकर स्नेह और मातृत्व की ठंडी छाँव देकर उसके उसके सपनों को बड़ा होने दिया और उसकी जरा सी चोट पऱ प्यार की बड़ी फूँक लगाकर एक दिन ये कहकर विदा कर दिया कि हर बेटी को एक दिन अपने घर जाना ही होता है। ये हर माँ बाप कि जिम्मेदारी ही नहीं बल्कि जग कि रीतिहै।इस बात में आग्रह नहीं आदेश था।
दूसरा घर जहाँ वो ब्याहकर आई थी। आते ही उसे ताने मिलने शुरू हो गए थे। हमारे बेटे के एक से एक बड़े रिश्ते थे।पता नहीं हमारे बेटे कि अक्ल पऱ कौन से पत्थर पड़े थे जो इसे ब्याहकर ले आया। देखने में भी बेटे से बड़ी लगती है। हम लोंगो का तो जरा भी आदर सत्कार नहीं किया गया।क्या सिखाया तुम्हारे माँ बाप ने तुम्हें ?
हमारे घर में ऐसा नहीं होता....।तुम अपने घर में कुछ भी करती हो..लेकिन हमारे घर में वैसा ही होगा.. जैसे हमारे घर के रीति रिवाज़ हैं। तुम कोई छोटी नहीं हो?.. पूरी 21 पार कर चुकी हो। इतनी अक्ल तो होनी चहिये तुम्हें? काव्या का मन तो हुआ कह दे 21पार किये हैं 61नहीं ।पऱ चुप रही । काव्या समझ नहीं पा रही थी कि वो किस घर में आ गईं है। ये घर भी उसे अपने जैसा क्यों नहीं लग रहाहै। कहीं उसे अब तीसरे घर तो नहीं जाना?इस घर की सबसे आश्चर्य की बात ये थी की बिगड़ों को नहीं सुधरना था सुधरों को बिगड़ना था।
उसने अभी तक सिर्फ दो घर के बारे में ही सुना था। तीसरा तो उसके सपने में भी नहीं था।
पऱ आज वो जिस घर में अपनी छह वर्ष की बेटी बिट्टू के साथ बैठी थी वो तीसरा घर ही था। पहले घर से तो विदा हो गईं थी।जहाँ अब बेटियों कि जगह भाभियों ने ले ली थी जगह भी ऐसी ली कि माँ को भी अपने रहने के लिये जगह ढूढ़नी पड़ रही थी। दूसरे घर के हालातों ने उसे घर छोड़ने पऱ मजबूर कर दिया था।और अब किराये का सही... मगर घर तो था । वो इसे..अपना घर तो नहीं कह सकती मगर सुकून तो था शांति तो थी।जहाँ इंसान रूपी जानवरों की आवाजे नहीं थीं । लड़ाई झगड़ा नहीं था । भूख नहीं थीं ..लालच नहीं था । बात बात पऱ ताने नहीं थे । डबल मेहनत जरूर थीं पऱ इस मेहनत को करने में उसे मजा भी आ रहा था ।इस घर को वो अपने अनुसार ढाल सकती थी,करीनेसे सजा सकती थीं। खुलकर ठंडी हवा में जी सकती थी । अपनी छोटी सी बगिया जिसमें तुलसी,केला बेला,गुड़हल, गुलाब , रात रानी तमाम फूलोंको लगाकर अपने घर को महका सकती थी । बेटी को वो संस्कार दे सकती थी जो वो देना चाहती थी तथा अपने व बिट्टू के सपनों में भी उड़ान भर सकती थी।
पऱ इसके वावजूद कहीं न कहीं वो कभी कभी अकेला भी महसूस करती थी। एक दिन वो बैठे बैठे सोच रही थी
पहले घर में सुकून था मगर अपना नहीं था.....छोड़ दिया।
दूसरे घर में सुकून जैसे शब्द से तो जैसे वास्ता ही नहीं था। घुट घुट के जी रही थी.। फैसला लिया और .. छोड़ दिया।
तीसरे घर में सुकून तो था । जीने की वजह भी थी .. बिट्टू।पऱ कहीं नहीं कहीं असुरक्षा कि भावना भी जन्म ले रही थी।
ज़ब अपनों में रखने कि ताकत नहीं है तो दूसरों से उम्मीद कैसे कि जा सकती है?
पऱ अब वो अपना मनोबल गिराना नही चाहती थीऔर न ही किसी के आगे झुकना चाहती थी । अपनी बेटी को भी उन चीजों का शिकार नहीं होने देना चाहती है जिससे उसका बचपन छिने।चाहे उसे इसके लिये कितने भी घर क्यों नहीं बदलने पड़े। अब वो आत्मसम्मान से जीना चाहतीथी और एक नया घर बनाना चाहती थी।उसे विश्वास था कि एक न एक दिन वो अपने पैसों से अपना एक छोटा सा घर बना ही लेगी।जिसमें पक्षीयो कि आवाजे तो होगी पऱ जानवरों कि नहीं। उसके घर में पहली शिक्षा संस्कारों की होगी न की भूख की,लालच की ।और फिर कह सकेगी ये तेरा घर ये मेरा घर... ये घर बड़ा हसीन है।
@vineetagupta