यूँ तो निशा मन वचन और कर्म की पूजा में ही विश्वास करती थी।।पर भगवान की भक्ति भी में भी उसकी विशेष रूचि थी औऱ समय समय पर आने वाले तीज त्यौहार भी बड़े उल्लास औऱ उत्साह से मनाती थी। उसने अपनी ससुराल में सास ससुर को हर पूर्णिमा पर सत्यनारायण की कथा कराते देखा था। उसे वैसे तो कथा में शामिल होने का मौका नौकरी की वजह से कम ही मिलता था। पर ज़ब मिलता था तो पूरे मन से बैठकर वो पूजा करती थी कथा सुनती ओर उसका आनंद लेती थी।
उसने देखा कई पूर्णिमा ऐसी आती हैं जो उसके मन को बहुत लुभाती हैं। वैसे तो हर पूर्णिमा का चाँद अपने आप में अपनी शीतल चाँदनी बिखेरता हुआ अद्भुत औऱ अनुपम होता है।पर चैती पूर्णिमा यानि हनुमान ज़ी का जन्म,सावन की पूर्णिमा यानि राखी, शरद पूर्णिमा यानि देवी देवताओं द्वारा अमृत वर्षा, होली की पूर्णिमा यानि बुराइयों का दहन, कार्तिक की पूर्णिमा यानि अन्नपूर्णा ज़ी का जन्म ये सब पूर्णिमा निशा के मन में एक अद्भुत रौशनी भरा करती थी।
एक दिन उसने निश्चय किया की वो अब हर पूर्णिमा का व्रत रहेगी ज़ब तक़ उसके कार्य पूर्ण नहीं हो जाते। कार्तिक पूर्णिमा से उसने पूर्णिमा का व्रत शुरू कर दिया था।उसे इस व्रत को करने में बहुत आनन्द आता था। उसे लगता था माँ पूर्णिमा औऱ सत्य नारायण ज़ी ही उसके जीवन में छायी निशा को दूर कर सकते हैंऔऱ उसे पूर्णिमा में बदल सकते हैं।ज़ब उसे अपने नए घर में प्रवेश करना था तो उसने चैती पूर्णिमा को ही उसका उदघाटन रखा था। अपने नए घर में आते ही उसे पूर्णिमा की रौशनी आती दिखाई देने लगी थी । उसने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया तथा संकल्प लिया की वो इस व्रत को तब तक़ करेगी ज़ब तक़ उसका शरीर साथ देगा।
अभी उसे नए घर में आये छह वर्ष ही हुए थे की हर वर्ष उसके घर में कुछ न कुछ नई औऱ बड़ी उपलब्धि होने लगी। समस्याएं यथावत थी पर उपलब्धियां जोर पकड़ने लगी थी । अब निशा का ध्यान समस्याओं पर न जाकर उपलब्धियों पर जाने लगा औऱ उसने अपना तन मन धन अब सब उस ओर मोड़ दिया जहाँ से ये रौशनी की सुनहरी किरण आ रही थी। जो शायद सिर्फ उसे दिखाई दें रही थी। अब उसे निशा डरावनी नहीं लग रही थी। वो उसे पूर्णिमा में बदलते दिख रही थी।
उसने अपने घर में एक अन्नपूर्णा ज़ी के नाम से मंदिर भी बनवा दिया था ओर उसमें जगन्नाथ ज़ी की मूर्तियां भी रख ली थी। वो अब इन दोनों को कभी खोना नहीं चाहती थी।क्योंकि इनकी कृपा से ही धीरे धीरे वो स्वयं को तथा घर की घोर निशा को बदलकर पूर्णिमा की रौशनी में बदलना चाहती थी।
कुछ समय बाद उसने अपने आँगन में एक नहीं दो दो चाँद खेलते देखे यानि दो कन्याओं ने जन्म लिया जो उसके घर में ईद का चाँद और पूनम का चाँद बनकर अपनी अद्भुत छटा की रौशनी बिखेर रही थीं और निशा दूर ख़डी होकर उन दोनों को देखकर मुस्करा रही थी।
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