जून की तपती दोपहरी में श्यामा अपने घर लंच लेने आया करती थी। वैसे तो श्यामा दफ्तर में ही लंच करती थी। मगर अभी अभी लगभग दो महीने पहले वो कॉलोनी के अपनें नये मकान में शिफ्ट हुई थी। ऑफिस पास होनेकी वजह से वो लंच लेने घर पर ही आ जाया करती थी।. इस बहाने घर की देखरेख तथा लंच भी अच्छी तरह से हो जाया करता था। तथा थोड़ी देर आराम भी कर लेती थी। आये दिन दिनदहाड़े कॉलोनी में चोरी आदि की किस्से तो वो सुनती ही रहती थी। इसलिए एक चक्कर लगाना भी जरूरी समझती थी।
पतिदेव का बिज़नेस उसी शहर में मगर उसके ऑफिस से काफ़ी दूर था। अतः श्यामा नें अपनी डूटी में ही ये काम कर रखा था।उसका एक बेटा भी था मगर वो अपनी कोचिंग बगैरह में व्यस्त रहता था इसलिये उसे डिस्टर्ब करने के लिये राजी न थी श्यामा।
एक दिन ज़ब श्यामा लंच लेने ऑफिस से घर आई तो .उसने अपनी गाड़ी दरवाज़े पर टिकाई और मैन गेटका ताला खोलकर अंदर चली गईं । जैसे ही वो अंदर वाला गेट खोल रही थी की अचानक मोबाइल की घंटी बजी। उसने पर्स खोलकर मोबाइल उठाया और कहा.. हैलो.. तो उस तरफ से पहलेतो कोई आवाज नहीं आई।श्यामा को थोड़ा अजीब भी लगा और श्यामा थोड़ा सा डरभी गईं। उसने फिर से कहा.. हैलो... तो आवाज आई "पहचाना "। फिर क्या था धड़कनों की रफ्तार ...तेज होती चली ।श्यामा का जबाब... "नहीं "। फिर वहाँ से जबाब...मगर मैंने पहचान लिया....। अब तो श्यामा को काटो तो खून नहीं।फिर भी बची खुची हिम्मत के साथ ... कौन?मगर मैंने नहीं पहचाना।जबाब.... आपका अपना ही हूँ....दोस्ती करोगी मुझसे? श्यामा की सांस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे,...।
श्यामा नें तेजी से फ़ोन काटा और कांपते हाथों से किसी तरह दरवाजा खोलकर तेजी से दरवाजा बंदकर सीधे पलंग पर जा कर चित हो गईं ।और मोबाइल एक तरफ पटक दिया। मगर ये क्या.…? घंटीयो पर घंटिया। श्यामा नें मोबाइल को हाथ तक नहीं लगाया।पसीने से तर श्यामा नें सबसे पहले तो सारी खिड़कियां बंद की। डरके मारे इतना बुरा हाल था कि जैसे फ़ोन नहीं...किसी भूत के साये नें उसका पीछा कर दिया हो।
उसे वो आवाज अब खिड़कियों की सांसो से आती दिखाई दें रही थी। उसने अपने आप को दीवार कि ओट में छिपा लिया था। उसे लग रहा था कोई शायद यहीं कहीं है। वो सोच रही थी कहीं ऐसा तो नहीं कोई उसकी रोज निगरानी करता हो? ऐसे सन्नाटे में अगर वो किसी कि बुलाएगी तो कौन सुनेगा उसकी? जून की दुपहरी और कुलरों की आवाज उसके डर में आहुति का काम कर रहे थे।ज़ब भी वो मैन गेट का दरवाजा खोलती थी एक अनजाना डर उसके ऊपर सदा हावी रहता था।कही कोई पीछे से धक्का न दे दे? कोई बॉउंड्री वाल को पार कर अंदर छुपकर न बैठ गया हो? तमाम प्रश्न उसके दिमाग़ में हमेशा चलते रहते थे। मगर ऐसे फ़ोन कि उसने कल्पना भी नहीं कि थी।ऑफिस से घर और घर से ऑफिस बस यहीं दिनचर्या थी उसकी। फालतू की बातें और फालतू फ़ोन न तो वो करती थी और न ही आते थे ।54साल की उम्र में इस तरह के फ़ोन का सामना पहली बार हुआ था। डर जाना स्वाभाविक था।
इतने बड़े बंगले में सिर्फ वो और उस फ़ोन कि तीन चार घंटिया उसे जिन्दा मारने के लिये काफ़ी थी।खुदा न खस्ता ज़ब मरना ही है तो कुछ करना भी है। उसनेहिम्मत करके फ़ोन उठाया और पतिदेव को लगा दिया। मगर पतिदेव का फ़ोन स्विच ऑफ़...।सारे रास्ते बचने के बंद दिखाई दे रहे थे उसेअपने।
मगर अब डर खत्म हिम्मत शुरूहो गईं थी ।लगे हाथ बेटे को फ़ोन घुमाया। बेटे नें फ़ोन उठा लिया था। जान में जान आ गईं थी उसकी।सारा हाल कह सुनाया उसने बेटे को।माँ की हालत वो अच्छी तरह समझ गया था।10मिनट में बाप बेटे दोनों खड़े थे उसके सामने। श्यामा के संग पूरे बंगले की छान बीन की गईं। कहीं कुछ नहीं था। हाँ छत पर जरूर एक व्यक्ति फ़ोन करते मिल गया था। बेटे नें चुटकी ली.. ये कहीं वहीं तो नहीं?हम सब हँस रहे थे फिरहाल वो अनजाना डर गायब था।
दूसरे दिन ज़ब वो ऑफिस गई तो सबके चेहरों को गौर से देखने लगी। कही इन्हीं में से कोई तो नहीं है?
क्योंकि ऐसा खतरा जान पहचान वालों से ही ज्यादा रहता है। वो शांत तो हो गईं थी मगर उस अनजाने डर नें महीनों उसका पीछा नहीं छोड़ा था।
@vineetakrishna