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खिलतीं मधु की नव कलियाँ

28 अप्रैल 2022

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खिलतीं मधु की नव कलियाँ

खिल रे, खिल रे मेरे मन!

नव सुखमा की पंखड़ियाँ

फैला, फैला परिमल-घन!

नव छवि, नव रंग, नव मधु से

मुकुलित, पुलकित हो जीवन!

सालस सुख की सौरभ से

साँसों का मलय-समीरण।

रे गूँज उठा मधुवन में

नव गुंजन, अभिनव गुंजन,

जीवन के मधु-संचय को

उठता प्राणों में स्पन्दन!

खुल खुल नव-नव इच्छाएँ

फैलातीं जीवन के दल,

गा-गा प्राणों का मधुकर

पीता मधुरस परिपूरण!

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रचनाएँ
गुंजन
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गुंजन कवि सुमित्रानन्दन पंत का काव्य-संग्रह है। इसका प्रकाशन सन् 1932 में हुआ था। इसे कवि पंत ने अपने प्राणों का 'उन्मन-गुंजन' कहा है। यह संकलन 'वीणा' 'पल्लव' काल के बाद कवि के नये भावोदय की सूचना देती है। इसमें हम उसे मानव के कल्याण और मंगलाशा के नये सूत्र काव्यबद्ध करते पाते हैं।
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वन-वन, उपवन

28 अप्रैल 2022
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वन-वन, उपवन छाया उन्मन-उन्मन गुंजन, नव-वय के अलियों का गुंजन! रुपहले, सुनहले आम्र-बौर, नीले, पीले औ ताम्र भौंर, रे गंध-अंध हो ठौर-ठौर उड़ पाँति-पाँति में चिर-उन्मन करते मधु के वन में गुंजन!

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तप रे मधुर-मधुर मन

28 अप्रैल 2022
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तप रे मधुर-मधुर मन! विश्व-वेदना में तप प्रतिपल, जग-जीवन की ज्वाला में गल, बन अकलुष, उज्ज्वल औ’ कोमल, तप रे विधुर-विधुर मन! अपने सजल-स्वर्ण से पावन रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम, स्थापित कर जग में

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शांत सरोवर का उर

28 अप्रैल 2022
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शांत सरोवर का उर किस इच्छा से लहरा कर हो उठता चंचल, चंचल? सोये वीणा के सुर क्यों मधुर स्पर्श से मर् मर् बज उठते प्रतिपल, प्रतिपल! आशा के लघु अंकुर किस सुख से फड़का कर पर फैलाते नव दल पर दल! म

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आते कैसे सूने पल

28 अप्रैल 2022
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आते कैसे सूने पल जीवन में ये सूने पल! जब लगता सब विशृंखल, तृण, तरु, पृथ्वी, नभ-मंडल। खो देती उर की वीणा झंकार मधुर जीवन की, बस साँसों के तारों में सोती स्मृति सूनेपन की। बह जाता बहने का सुख,

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मैं नहीं चाहता चिर सुख

28 अप्रैल 2022
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मैं नहीं चाहता चिर-सुख, मैं नहीं चाहता चिर दुख; सुख-दुख की खेल मिचौनी खोले जीवन अपना मुख। सुख-दुख के मधुर मिलन से यह जीवन हो परिपूरण; फिर घन में ओझल हो शशि, फिर शशि से ओझल हो घन। जग पीड़ित है

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देखूँ सबके उर की डाली

28 अप्रैल 2022
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देखूँ सबके उर की डाली किसने रे क्या क्या चुने फूल जग के छबि-उपवन से अकूल? इसमें कलि, किसलय, कुसुम, शूल! किस छबि, किस मधु के मधुर भाव? किस रँग, रस, रुचि से किसे चाव? कवि से रे किसका क्या दुराव!

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सागर की लहर लहर में

28 अप्रैल 2022
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सागर की लहर लहर में है हास स्वर्ण किरणों का, सागर के अंतस्तल में अवसाद अवाक् कणों का! यह जीवन का है सागर, जग-जीवन का है सागर; प्रिय प्रिय विषाद रे इसका, प्रिय प्रि’ आह्लाद रे इसका। जग जीवन में

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आँसू की आँखों से मिल

28 अप्रैल 2022
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आँसू की आँखों से मिल भर ही आते हैं लोचन, हँसमुख ही से जीवन का पर हो सकता अभिवादन। अपने मधु में लिपटा पर कर सकता मधुप न गुंजन, करुणा से भारी अंतर खो देता जीवन-कंपन विश्वास चाहता है मन, विश्वास

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कुसुमों के जीवन का पल

28 अप्रैल 2022
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कुसुमों के जीवन का पल हँसता ही जग में देखा, इन म्लान, मलिन अधरों पर स्थिर रही न स्मिति की रेखा! बन की सूनी डाली पर सीखा कलि ने मुसकाना, मैं सीख न पाया अब तक सुख से दुख को अपनाना। काँटों से कुट

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जाने किस छल-पीड़ा से

28 अप्रैल 2022
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जाने किस छल-पीड़ा से व्याकुल-व्याकुल प्रतिपल मन, ज्यों बरस-बरस पड़ने को हों उमड़-उमड़ उठते घन! अधरों पर मधुर अधर धर, कहता मृदु स्वर में जीवन-- बस एक मधुर इच्छा पर अर्पित त्रिभुवन-यौवन-धन! पुलक

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क्या मेरी आत्मा का चिर धन

28 अप्रैल 2022
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क्या मेरी आत्मा का चिर-धन? मैं रहता नित उन्मन, उन्मन! प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर, तृण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर, सुन्दर अनादि शुभ सृष्टि अमर; निज सुख से ही चिर चंचल-मन, मैं हूँ प्रतिपल उन्मन,

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क्या मेरी आत्मा का चिर धन

28 अप्रैल 2022
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क्या मेरी आत्मा का चिर-धन? मैं रहता नित उन्मन, उन्मन! प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर, तृण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर, सुन्दर अनादि शुभ सृष्टि अमर; निज सुख से ही चिर चंचल-मन, मैं हूँ प्रतिपल उन्मन,

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खिलतीं मधु की नव कलियाँ

28 अप्रैल 2022
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खिलतीं मधु की नव कलियाँ खिल रे, खिल रे मेरे मन! नव सुखमा की पंखड़ियाँ फैला, फैला परिमल-घन! नव छवि, नव रंग, नव मधु से मुकुलित, पुलकित हो जीवन! सालस सुख की सौरभ से साँसों का मलय-समीरण। रे गूँज उ

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खिलतीं मधु की नव कलियाँ

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खिलतीं मधु की नव कलियाँ खिल रे, खिल रे मेरे मन! नव सुखमा की पंखड़ियाँ फैला, फैला परिमल-घन! नव छवि, नव रंग, नव मधु से मुकुलित, पुलकित हो जीवन! सालस सुख की सौरभ से साँसों का मलय-समीरण। रे गूँज उ

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सुन्दर विश्वासों से ही

28 अप्रैल 2022
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सुन्दर विश्वासों से ही बनता रे सुखमय-जीवन, ज्यों सहज-सहज साँसों से चलता उर का मृदु स्पन्दन। हँसने ही में तो है सुख यदि हँसने को होवे मन, भाते हैं दुख में आते मोती-से आँसू के कण! महिमा के विशद-

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सुन्दर मृदु-मृदु रज का तन

28 अप्रैल 2022
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सुन्दर मृदु-मृदु रज का तन, चिर सुन्दर सुख-दुख का मन, सुन्दर शैशव-यौवन रे सुन्दर-सुन्दर जग-जीवन! सुन्दर वाणी का विभ्रम, सुन्दर कर्मों का उपक्रम, चिर सुन्दर जन्म-मरण रे सुन्दर-सुन्दर जग-जीवन! सु

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गाता खग प्रातः उठ कर

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गाता खग प्रातः उठकर सुन्दर, सुखमय जग-जीवन! गाता खग सन्ध्या-तट पर मंगल, मधुमय जग-जीवन! कहती अपलक तारावलि अपनी आँखों का अनुभव, अवलोक आँख आँसू की भर आतीं आँखें नीरव! हँसमुख प्रसून सिखलाते पल भर

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विहग, विहग

28 अप्रैल 2022
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विहग, विहग, फिर चहक उठे ये पुंज-पुंज, कल-कूजित कर उर का निकुंज, चिर सुभग, सुभग! किस स्वर्ण-किरण की करुण-कोर कर गई इन्हें सुख से विभोर? किन नव स्वप्नों की सजग-भोर? हँस उठे हृदय के ओर-छोर जग-ज

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जग के दुख दैन्य शयन पर

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जग के दुख-दैन्य-शयन पर यह रुग्णा जीवन-बाला रे कब से जाग रही, वह आँसू की नीरव माला! पीली पड़, निर्बल, कोमल, कृश-देह-लता कुम्हलाई; विवसना, लाज में लिपटी, साँसों में शून्य समाई! रे म्लान अंग, रँग

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तुम मेरे मन के मानव

28 अप्रैल 2022
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तुम मेरे मन के मानव, मेरे गानों के गाने; मेरे मानस के स्पन्दन, प्राणों के चिर पहचाने! मेरे विमुग्ध-नयनों की तुम कान्त-कनी हो उज्ज्वल; सुख के स्मिति की मृदु-रेखा, करुणा के आँसू कोमल! सीखा तुमसे

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झर गई कली

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झर गई कली, झर गई कली! चल-सरित-पुलिन पर वह विकसी, उर के सौरभ से सहज-बसी, सरला प्रातः ही तो विहँसी, रे कूद सलिल में गई चली! आई लहरी चुम्बन करने, अधरों पर मधुर अधर धरने, फेनिल मोती से मुँह भरन

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प्रिये, प्राणों की प्राण

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भावी पत्नी के प्रति प्रिये, प्राणों की प्राण! न जाने किस गृह में अनजान छिपी हो तुम, स्वर्गीय-विधान! नवल-कलिकाओं की-सी वाण, बाल-रति-सी अनुपम, असमान-- न जाने, कौन, कहाँ, अनजान, प्रिये, प्राणों

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कब से विलोकती तुमको

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कब से विलोकती तुमको ऊषा आ वातायन से? सन्ध्या उदास फिर जाती सूने-गृह के आँगन से! लहरें अधीर सरसी में तुमको तकतीं उठ-उठ कर, सौरभ-समीर रह जाता प्रेयसि! ठण्ढी साँसे भर! हैं मुकुल मुँदे डालों पर,

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मुसकुरा दी थी क्या तुम प्राण

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मुसकुरा दी थी क्या तुम, प्राण! मुसकुरा दी थी आज विहान? आज गृह-वन-उपवन के पास लोटता राशि-राशि हिम-हास, खिल उठी आँगन में अवदात कुन्द-कलियों की कोमल-प्रात। मुसकुरा दी थी, बोलो, प्राण! मुसकुरा दी थ

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नील-कमल सी हैं वे आँख

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नील-कमल-सी हैं वे आँख! डूबे जिनके मधु में पाँख मधु में मन-मधुकर के पाँख! नील-जलज-सी हैं वे आँख! मुग्ध स्वर्ण-किरणों ने प्रात प्रथम खिलाए वे जलजात; नील व्योम ने ढल अज्ञात उन्हें नीलिमा दी नवजात;

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तुम्हारी आँखों का आकाश

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तुम्हारी आँखों का आकाश, सरल आँखों का नीलाकाश- खो गया मेरा खग अनजान, मृगेक्षिणि! इनमें खग अज्ञान। देख इनका चिर करुण-प्रकाश, अरुण-कोरों में उषा-विलास, खोजने निकला निभृत निवास, पलक-पल्लव-प्रच्छाय-

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नवल मेरे जीवन की डाल

28 अप्रैल 2022
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नवल मेरे जीवन की डाल बन गई प्रेम-विहग का वास! आज मधुवन की उन्मद वात हिला रे गई पात-सा गात, मन्द्र, द्रुम-मर्मर-सा अज्ञात उमड़ उठता उर में उच्छ्वास! नवल मेरे जीवन की डाल बन गई प्रेम-विहग का वास!

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आज रहने दो यह गृह-काज

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आज रहने दो यह गृह-काज, प्राण! रहने दो यह गृह-काज! आज जाने कैसी वातास छोड़ती सौरभ-श्लथ उच्छ्वास, प्रिये लालस-सालस वातास, जगा रोओं में सौ अभिलाष। आज उर के स्तर-स्तर में, प्राण! सजग सौ-सौ स्मृतिया

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मधुवन

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आज नव-मधु की प्रात झलकती नभ-पलकों में प्राण! मुग्ध-यौवन के स्वप्न समान,-- झलकती, मेरी जीवन-स्वप्न! प्रभात तुम्हारी मुख-छबि-सी रुचिमान! आज लोहित मधु-प्रात व्योम-लतिका में छायाकार खिल रही नव-पल

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रूप-तारा तुम पूर्ण प्रकाम

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रूप-तारा तुम पूर्ण प्रकाम; मृगेक्षिणि! सार्थक नाम। एक लावण्य-लोक छबिमान, नव्य-नक्षत्र समान, उदित हो दृग-पथ में अम्लान तारिकाओं की तान! प्रणय का रच तुमने परिवेश दीप्त कर दिया मनोनभ-देश; स्निग्ध

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कलरव किसको नहीं सुहाता

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कलरव किसको नहीं सुहाता? कौन नहीं इसको अपनाता? यह शैशव का सरल हास है, सहसा उर से है आ जाता! कलरव किसको नहीं सुहाता? कौन नहीं इसको अपनाता? यह ऊषा का नव-विकास है, जो रज को है रजत बनाता! कलरव

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अलि! इन भोली-बातों को

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अलि! इन भोली बातों को अब कैसे भला छिपाऊँ! इस आँख-मिचौनी से मैं कह? कब तक जी बहलाऊँ? मेरे कोमल-भावों को तारे क्या आज गिनेंगे! कह? इन्हें ओस-बूँदों-सा फूलों में फैला आऊँ? अपने ही सुख में खिल-खिल

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आँखों की खिड़की से उड़ उड़

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आँखों की खिड़की से उड़-उड़ आते ये आते मधुर-विहग, उर-उर से सुखमय भावों के आते खग मेरे पास सुभग। मिलता जब कुसुमित जन-समूह नयनों का नव-मुकुलित मधुवन पलकों की मृदु-पंखड़ियों पर मँडराते मिलते ये ख

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जीवन की चंचल सरिता में

28 अप्रैल 2022
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जीवन की चंचल सरिता में फेंकी मैंने मन की जाली, फँस गईं मनोहर भावों की मछलियाँ सुघर, भोली-भाली। मोहित हो, कुसुमित-पुलिनों से मैंने ललचा चितवन डाली, बहु रूप, रंग, रेखाओं की अभिलाषाएँ देखी-भालीं

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मेरा प्रतिपल सुन्दर हो

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मेरा प्रतिपल सुन्दर हो, प्रतिदिन सुन्दर, सुखकर हो, यह पल-पल का लघु-जीवन सुन्दर, सुखकर, शुचितर हो! हों बूँदें अस्थिर, लघुतर, सागर में बूँदें सागर, यह एक बूँद जीवन का मोती-सा सरस, सुघर हो! म

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आज शिशु के कवि को अनजान

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आज शिशु के कवि को अनजान मिल गया अपना गान! खोल कलियों के उर के द्वार दे दिया उसको छबि का देश; बजा भौरों ने मधु के तार कह दिए भेद भरे सन्देश; आज सोये खग को अज्ञात स्वप्न में चौंका गई प्रभात; गूढ

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लाई हूँ फूलों का हास

28 अप्रैल 2022
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लाई हूँ फूलों का हास, लोगी मोल, लोगी मोल? तरल तुहिन-बन का उल्लास लोगी मोल, लोगी मोल?   फैल गई मधु-ऋतु की ज्वाल, जल-जल उठतीं बन की डाल; कोकिल के कुछ कोमल बोल लोगी मोल, लोगी मोल? उमड़ पड़ा पा

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जीवन का उल्लास

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जीवन का उल्लास, यह सिहर, सिहर, यह लहर, लहर, यह फूल-फूल करता विलास! रे फैल-फैल फेनिल हिलोल उठती हिलोल पर लोल-लोल; शतयुग के शत बुद्बुद् विलीन बनते पल-पल शत-शत नवीन; जीवन का जलनिधि डोल-डोल, कल

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प्राण! तुम लघु-लघु गात

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प्राण! तुम लघु-लघु गात! नील-नभ के निकुंज में लीन, नित्य नीरव, निःसंग नवीन, निखिल छबि की छबि! तुम छबि-हीन, अप्सरी-सी अज्ञात! अधर मर्मर-युत, पुलकित अंग, चूमतीं चल-पद चपल-तरंग, चटकतीं कलियाँ प

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जग के उर्वर आँगन में

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जग के उर्वर-आँगन में बरसो ज्योतिर्मय जीवन! बरसो लघु-लघु तृण, तरु पर हे चिर-अव्यय, चिर-नूतन! बरसो कुसुमों में मधु बन, प्राणों में अमर प्रणय-धन; स्मिति-स्वप्न अधर-पलकों में, उर-अंगों में सुख-यौ

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नीरव-तार हृदय में

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नीरव-तार हृदय में, गूँज रहे हैं मंजुल-लय में; अनिल-पुलक से अरुणोदय में। नीरव-तार हृदय में चरण-कमल में अर्पण कर मन, रज-रंजित कर तन, मधुरस-मज्जित कर मम जीवन, चरणामृत-आशय में। नीरव-तार हृदय में

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विहग के प्रति

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विजन-वन के ओ विहग-कुमार! आज घर-घर रे तेरे गान; मधुर-मुखरित हो उठा अपार जीर्ण-जग का विषण्ण-उद्यान! सहज चुन-चुन लघु तृण, खर, पात, नीड़ रच-रच निशि-दिन सायास, छा दिये तूने, शिल्पि-सुजात! जगत की डाल

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एक तारा

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नीरव सन्ध्या मे प्रशान्त डूबा है सारा ग्राम-प्रान्त। पत्रों के आनत अधरों पर सो गया निखिल बन का मर्मर, ज्यों वीणा के तारों में स्वर। खग-कूजन भी हो रहा लीन, निर्जन गोपथ अब धूलि-हीन, धूसर भुजंग-सा ज

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चाँदनी

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नीले नभ के शतदल पर वह बैठी शारद-हासिनि, मृदु-करतल पर शशि-मुख धर, नीरव, अनिमिष, एकाकिनि! वह स्वप्न-जड़ित नत-चितवन छू लेती अग-जग का मन, श्यामल, कोमल, चल-चितवन जो लहराती जग-जीवन! वह फूली बेला की

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अप्सरा

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निखिल-कल्पनामयि अयि अप्सरि! अखिल विस्मयाकार! अकथ, अलौकिक, अमर, अगोचर, भावों की आधार! गूढ़, निरर्थ असम्भव, अस्फुट भेदों की शृंगार! मोहिनि, कुहकिनि, छल-विभ्रममयि, चित्र-विचित्र अपार! शैशव की त

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नौका-विहार

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शांत स्निग्ध, ज्योत्स्ना उज्ज्वल! अपलक अनंत, नीरव भू-तल! सैकत-शय्या पर दुग्ध-धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल, लेटी हैं श्रान्त, क्लान्त, निश्चल! तापस-बाला गंगा, निर्मल, शशि-मुख से दीपित मृदु-करतल,

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तेरा कैसा गान

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(क) तेरा कैसा गान, विहंगम! तेरा कैसा गान? न गुरु से सीखे वेद-पुराण, न षड्दर्शन, न नीति-विज्ञान; तुझे कुछ भाषा का भी ज्ञान, काव्य, रस, छन्दों की पहचान? न पिक-प्रतिभा का कर अभिमान, मनन कर, मनन,

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चींटियों की-सी काली पाँति

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चीटियों की-सी काली-पाँति गीत मेरे चल-फिर निशि-भोर, फैलते जाते हैं बहु-भाँति बन्धु! छूने अग-जग के छोर। लोल लहरों से यति-गति-हीन उमह, बह, फैल अकूल, अपार, अतल से उठ-उठ, हो-हो लीन, खो रहे बन्धन गीत

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