... ऐसी स्थिति में भारत को सिर्फ इस बात के लिए खुशफहमी क्यों पालनी चाहिए कि 'चीन से निपटने में अमेरिका भारत का साथ देगा'? ऐसा कोई एक वाकया भी अब तक सामने नहीं आया है, जिससे प्रतीत हो कि अमेरिका भारत के सैन्य और आर्थिक हितों के प्रति अपनी नीतियों में बदलाव ला रहा है. ले देकर जार्ज बुश और मनमोहन सिंह के ज़माने में हुए असैन्य परमाणु समझौते को हम भारत-अमेरिका के बीच उपलब्धि बता सकते हैं, किन्तु आज भी इस समझौते के तहत कितनी बिजली और कहाँ उत्पन्न की जा रही है, यह शोध का विषय हो सकता है. हाल ही में अमेरिकी सेना के साथ, लॉजिस्टिक सपोर्ट समझौता किया है भारत ने, किन्तु यह पूरी तरह से अमेरिका के पक्ष में झुका हुआ दिख रहा है तो आने वाले भविष्य में भारत की स्वाय्यत्ता को भी नुक्सान पहुंचा सकता. इस बारे में मैंने अपने पिछले लेख में विस्तार से ज़िक्र किया है. ऐसे में सिर्फ 'शोमैनशिप' करने भर से ज़मीनी हालत में कुछ ख़ास परिवर्तन आ जायेगा, ऐसा प्रतीत नहीं होता है. हालिया प्रस्तावित यात्रा के सम्बन्ध में, उम्मीद की जा रही है कि इसी साल जून के पहले सप्ताह में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बार फिर अमेरिका के दौरे पर होंगे. इससे पहले भी वो तीन बार अमेरिका जा चुके है, लेकिन इस बार ...
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