अखिलेश यादव की पार्टी की अपेक्षित पराजय और प्रत्याशित पराभव के कारण तो अब उनके चहैते लोग भी गिनायेंगे। वहीं उक्ति जॉन कैनेडी वाली कि विजय के कई पिता पैदा हो जाते हैं मगर विफलता अनाथ रहती है। सरसरी तौर पर अखिलेश द्वारा स्वयं राष्ट्रीय अध्यक्ष बनजाने वाली समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) के पराभव के तीन प्रमुख कारण रहे।
पहला तो यही कि यह मिलावटी समाजवाद की शिकस्त है। लोहिया और राहुल गांधी की फोटो का चुनाव पोस्टर में साथ छापकर अखिलेश यादव ने हर निश्ठावान सोशलिस्ट को आहत किया था। वैचारिक रूप से उन्हें दरिद्र बना डाला था। मानो जवाहरलाल नेहरू को कोई अमित शाह के समकक्ष रख दे। राहुल गांधी एक पनवती (मोदी की मातृभाशा गुजराती में अभाग्य की वाहक) हैं जिनके चरण पड़ते ही विजयलक्ष्मी भाग जाती है। राजनाथ सिंह ने ठीक कहा कि कांग्रेस-सपा का गठबंधन वस्तुतः ठग बंधन था। अब राहुल गांधी की कांग्रेस पंजाब तथा गोवा जीतकर भी क्षेत्रीय पार्टी ही बनी रहेगी। मगर साथ में समाजवादी पार्टी को भी ले डूबे। महाभारत के पात्र शकुनी की याद आती है जिसने अपनी बहन गांधारी का एक अंधे से जबरन विवाह कराने पर पूरे कुरूवंश के समूल नाश की कसम खाई थी।
दूसरा कारण, बल्कि परिणाम यह रहा कि परिवार के मर्यादित आचारण के नियमों का अखिलेश ने खपच्चे उड़ा दिये। पिता-पुत्र के रिश्तों को बदनाम कर डाला। कोई भी हिन्दू इसे बर्दाष्त नहीं कर पाता। और इसी लिए हिन्दू वोट छटक गये। फिर आया मीडिया को जबरन गुलाम बनाना और जकड़ने की साजिश जो मुख्यमंत्री के चंद चहैते नौकरशह कर रहे थे इस की प्रतिक्रिया भी प्रतिकूल हुई। चुनाव में मीडिया भी छुट्टा सांड जैसी तूफान मचाती रही। स्चच्छन्द हो गयी।
आज हालत यह हो गयी कि अखिलेश यादव विधानसभा के सदस्य भी नहीं रहे वर्ना नेता विपक्ष बनकर कम से कम लालबत्ती पा जाते, काबीना मंत्री का दर्जा पा लेते। वे विधान परिशद के सदस्य हैं।
इस समाजवादी त्रासदी की शुरुआत हुई जब मुलायम सिंह यादव द्वारा रोपी, सिंचित फसल को फोकट में अखिलेश मार्च 2012 में काट ले गये।
पिता को अपदस्थ कर दिया, कुछ औरंगजेब स्टाइल में | अपने सगे चाचा शिवपाल सिंह यादव का वही हश्र कर दिया जो अलाउद्दीन खिलजी ने सुलतान बनने के लिए अपने सगे चाचा सुलतान जलालुद्दीन खिलजी के मंझधार में नाव पर ही मार डाला था और सल्तनत कब्जियाया था। अमूमन विपक्ष का नेता ही मुख्यमंत्री बनता है। मगर 2012 में शिवपाल सिंह यादव को अखिलेश ने कटवा कर मुख्यमंत्री पद खुद झपट लिया।
आश्चर्य तो यह होता है कि किलो में नौ सौ ग्राम तौलनेवालों की पार्टी भाजपा का प्रधानमंत्री वर्ग-संघर्श को अपने अभियान का आधार बनाकर नोटबंदी को मुद्दा बना रहा था, तो लोहियावादी विरासत के अखिलेश यादव केवल लुटेरे यादव सिंह मार्का अर्थनीति को पनपा रहे थें।
फिलहाल अब मुलायम सिंह यादव को शेष समय में नये सिरे से पार्टी गढ़नी होगी। शुरूआत में ही अपने वंचित अनुज शिवपाल को विधानसभा में नेता विपक्ष नामित करें। शायद तब सितारे गर्दिश से ऊपर उठें।