मैं उत्तर प्रदेश चुनाव कवर करने नहीं गया। यह पहला चुनाव था जिसे मैंने छोड़ दिया। चुनाव शुरू होने के दो तीन महीने पहले से पूरे प्रदेश की ख़ाक छानने की योजना बनाता रहा लेकिन प्रथम दो चरणों के बाद घर बैठ गया। कुछ पारिवारिक कारण भी थे और अब मन भी नहीं करता है। मेरे अंदर एक पत्रकार के रूप में चुनाव को देखने समझने की भूख मिट चुकी है। मैं टीवी न के बराबर देखता हूँ इसलिए चुनाव से संबंधित दूसरों की रिपोर्टिग भी कम देखी और अख़बार भी न के बराबर पलटा। फेसबुक और ट्वीटर पर ज़रूर देखा कि किस तरह की ख़बरें चल रही हैं। फोन पर दूसरे पत्रकारों से बात करता रहा मगर मेरा अपना कोई आंकलन नहीं था। किसी का आंकलन ग़लत निकला और किसी का सही।
उत्तर प्रदेश इसलिए नहीं गया क्योंकि मेरे भीतर की चुनावी रिपोर्टिग थक गई है। मैं ख़ुद को एक और बार के लिए उसी फार्मेट में बंद नहीं करना चाहता था। वही जाति, वही धर्म और वही इनके प्रतिशत। वही राजतिलक और वही कौन बनेगा मुख्यमंत्री। चुनावी रिपोर्टिंग में नया करने की समझ नहीं बन पा रही थी। इसलिए नहीं चाहते हुए भी जब गया तो चुनावी रिपोर्टिंग के उसी पुराने पिंजड़े में फँस कर जाट या जाटव मतदाताओं को समझने लगा। जबकि सोच कर बैठा था कि इस बार ऐसे रिपोर्टिंग नहीं करूँगा। एक दो छोड़ दें तो हमने जितनी भी रिपोर्टिग की,मीडिया के बने बनाए फार्मेट से निकलने की कोशिश में की। बहुत हद तक हमने किया भी, मगर पता नहीं वो टीवी के एकरसीया माहौल में लोगों को पसंद आया भी या नहीं। या फिर उन्हें पसंद तो आया होगा मगर किसी काम का नहीं लगा होगा।
चुनावी रिपोर्टिंग की यह बेचैनी कई चुनावों से बन रही है। लोकसभा में यूपी, दिल्ली और बिहार की मेरी रिपोर्टिंग आप देखेंगे तो कुछ को छोड़ सब अलग अलग दिखेंगी। बिहार की रिपोर्टिंग में लगेगा ही नहीं कि चुनाव कवर कर रहा हूँ। दिल्ली में कुछ और तरीके से करने का प्रयास किया। हर छह महीने साल भर के बाद उसी पुराने फार्मेट में रिपोर्ट करने से डर लगता है। इस फार्मेट में सिर्फ किसी दल या सरकार का ढिंढोरा ही पीटा जा सकता है। इन पर बाज़ार और सरकार का क़ब्ज़ा हो गया है। आप देखेंगे कि कई साल से चुनावी नतीजे के आसपास का फार्मेट एक सा ही है।
पत्रकार जाति और धर्मानुसार मतदाता के मन को समझने की चुनौती उठा लेते हैं। नतीजा यह होता है कि मतदाता ख़ुद को व्यक्ति के तौर पर पेश नहीं करता, पत्रकार के सवाल पूछते ही वो अपने समुदाय के प्रतिनिधि नेता के तौर पर बोलने लगता है। जब वही मन की बात नहीं बताना चाहता तो पत्रकार क्यों उसके मन की बात जान लेने की ज़िद पर अड़े रहते हैं। नतीजा आने पर कई लोग छाती कूट रहे हैं कि मुझे क्यों नहीं पता चला। चालीस दिन घूमा लेकिन भनक नहीं लगी। कुछ पत्रकार अब तो यही जानने निकलते हैं कि फ़लाँ जगह मोदी लहर है या नहीं। जैसे मोदी लहर मापना भी एक नया बीट बन गया है।
पत्रकार को यह लोड क्यों लेना चाहिए। वो मतदाता का मन जानने जाता है या मुद्दों को समझने, रणनीति को देखने, चुनाव में हो रहे ग़लत सही को देखने। एक मतदाता तक कई पार्टियाँ कैसे पहुँचती हैं, पर्चे से लेकर भाषण तक किस तरह से असर करते हैं, क्या कोई इस तरह से देखने जानने का प्रयास कर रहा था। किसी की रिपोर्ट में आज तक नहीं दिखा कि संघ के कार्यकर्ता कैसे घर घर जाते हैं। वही जाते हैं या मार्केटिंग एजेंसी के लोग जाते हैं। हम सुनते हैं मगर ऐसा होते हुए मीडिया की रिपोर्ट में कहाँ देख पाते हैं। कितना कुछ गुप्त रह जाता है। ग़लत की रिपोर्टिग का साहस तो किसी में नहीं रहा। लोग अब किसी पत्रकार को अपनी पार्टी की पसंद के आधार पर देखते हैं। जनता को भी पत्रकारिता से वही उम्मीद है जो पार्टी से है। नेता के आगे पीछे पसंद वाले पत्रकार ही होते हैं। मैं जो लिख रहा हूँ वो बीजेपी की हार जीत से संबंधित नहीं है, न ही वो सिर्फ बीजेपी सापेक्षिक है।
चुनाव आते ही एक मतदाता कैसे जाति धर्म के पैकेज में बदल जाता है। कैसे वो इस पैकेज से बाहर निकलता है। किस तरीके की सूचनाएँ उसे पैकेजबंद करती हैं और किस तरह की सूचनाएँ आज़ाद करती हैं। क्या किसी रिपोर्टर ने जानने की कोशिश की या ये सब होते देखा। कई पत्रकार ढाबा देखकर ही लोटपोट हो जाते हैं जैसे सात जन्म में ढाबा न देखें हों। ढाबे के खाने की तस्वीरें ट्वीट करेंगे। गाँव वालों के साथ फोटो खींचा कर ट्वीट करेंगे। जैसे कोई पर्यटक आगरा ताज महल देखने जाता है मगर देखेगा पाँच मिनट लेकिन ताज महल के लघु रूप को ख़रीदने में एक घंटा लगायेगा। चुनाव शुरू होते ही अमित शाह का घंटा घंटा भर का इंटरव्यू शुरू हो जाता है। लखनऊ गए पत्रकार अखिलेश यादव का इंटरव्यू करने लगते हैं। एक ही चैनल के पाँच पत्रकार अखिलेश का इंटरव्यू कर रहे हैं। इंटरव्यू सवालों के जवाब के लिए नहीं होते क्योंकि बहुत कम में सवाल सवाल की तरह पूछे जाते हैं। कुल मिलाकर यह पैटर्न भी ऊब पैदा करता है। शायद दर्शक नहीं ऊबे हैं मगर मेरे भीतर की रचनात्मकता ये सब देखकर बैठ जाती है। कई बार लगता है कि इन्हीं सब में विलीन हो जाता हूँ। अलग करना भी सज़ा है। पूरा दिन इसी में खपा रहता हूँ। मेरा कोई जजमेंट नहीं है कि ये करना ख़राब है या यही श्रेष्ठ है बल्कि मैं चट गया हूँ। ये चीज़ें मुझे आकर्षित नहीं करती हैं।
इसलिए इस बार हम जितना भी निकले, मैं उसमें यही जानने का प्रयास किया कि महिला मतदाता या मतदाता कैसे चुनाव के लिए अपनी मत बनाता है। मतदाता जानता है या उसे बताया जाता है? अफवाह की भूमिका है या अखबार की है? मतदाता की जागरूकता एक मिथ है। वो भी हमारी तरह जानता और नहीं जानता है। उसके पास सरकार का कोई सारा रिकार्ड नहीं होता है। हर दल अपने तरीके से जनता को कंफ्यूज़ करते हैं। कुछ योजनाओं को लेकर व्यक्तिगत रूप से मतदाता कुछ अनुभव रखता है। बाकी सब सुनी सुनाई बातों के आधार पर राय बनाता है। कोई निश्चित जवाब तो नहीं मिला लेकिन चार पाँच एपिसोड में यही जानने का प्रयास किया कि उसके जनमत का आधार क्या है? क्या वाक़ई वो सरकार के कामकाज़ के आधार पर ही बनाता है और इसके लिए किन माध्यमों पर भरोसा करता है। यही देखा कि टीवी सबके लिए आसान माध्यम है। टीवी का प्रोपेगैंडा वह ख़बर के रूप में स्वीकार कर रहा है। यह भी पता चला कि मतदाता को जानने समझने के हमारे फार्मेट बेकार हो चुके हैं या उसके अलावा भी कुछ है जो हम नहीं जानते।
हमने जितनी भी रिपोर्टिंग की, एक में भी मुस्लिम मतदाता के मन को समझने का प्रयास नहीं किया और इसके लिए देवबंद और अलीगढ़ यूनीवर्सिटी नहीं गए। मेरा मानना है कि भारत की राजनीति में ए एम यू की कोई भूमिका नहीं है। ए एम यू के लोग अपनी सारी भूमिका ओल्ड ब्वायज़ एसोसिएशन बनाने में ही खपा देते हैं। मुसलमान मतदाता का मन न तो ए एम यू बनाता है न देवबंद । मुसलमान भी मुसलमान को नहीं जानता है। कितने सारे दलों में वो बीजेपी से नहीं ख़ुद से लड़ रहा था। पत्रकार मुसलमानों की राजनीतिक महत्वकांक्षा को बीजेपी के संदर्भ में परखने में लगे थे जबकि मुसलमान मतदाता काउंसिल से लेकर तंजीम के पीछे लगा था। मैं पहले के चुनाव में दोनों जगहें जाता था लेकिन लोकसभा के बाद से बंद कर दिया। बल्कि प्राइम टाइम के एक एपिसोड में बोला भी कि चुनावी रिपोर्टिंग में कुछ शहरों और इदारों को ख़ास ओहदा हासिल है। किस वजह से है, समझ नहीं आया। उसी तरह हिन्दू वोट को समझने के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण जैसे मुहावरों को छोड़ देना चाहिए। मतदाता के भीतर की धार्मिक पहचान किसी और तरीके से बनती है। मंच के भाषणों से सिर्फ इशारा किया जाता है। असली खेल ज़मीन पर होता है जिसकी हमें कोई जानकारी नहीं होती है। सब चुनाव के बाद पता चलता है।
कुलमिलाकर मुझे मीडिया की चुनावी रिपोर्टिग समझ नही आती है। मीडिया जिस अनुभव संसार को रच रहा है वो ख़तरनाक है। रिपोर्टिंग नहीं होती है बल्कि मतदाता को गढ़ा जाता है। पहले वो दर्शक को उपभोक्ता बनाता है फिर उपभोक्ता की तरह तरह की पैकेजिंग करता है। इसका विकल्प है और उपाय भी मगर बड़े पैमाने पर करने की न तो मेरी क्षमता है और न संसाधन। रोज़ रोज़ नया तो कर देता हूँ लेकिन अकेले मेरे बस की बात नहीं है। मुझे अपवाद नहीं बनना है। अपवाद का अकेलापन ख़तरनाक भी होता है। बने बनाए फार्मेट में एंकरिंग कीजिये। घर से सूट पहनकर जाइये और करते आ जाइये। सुबह छह बजे से लेकर रात के ग्यारह बजे तक नया करने का जुनून पागल कर रहा है।
मैं नहीं मानता कि वो कोई मंगल ग्रह का प्राणी है लेकिन मैं मानता हूँ कि उसे समझने के मेरे सारे उपकरण पुराने हो चुके हैं। कुछ ऊब के कारण तो कुछ वाजिब कारणों से भी। आप चुनावी दौर के स्टुडियो से किए गए प्राइम टाइम भी देखिये। जितना हो सका अपनी ऊब से उबरने के लिए नए तरीके की खोज करता रहा। कामयाब रहा या नहीं मेरे सामने ये सवाल नहीं है, मेरा एक ही सवाल है कि मैं क्यों एक बात को हर पाँच महीने के बाद एक ही तरह से जानूँ।
मूल रूप से बीस साल से उत्तर भारत के दो तीन प्रदेशों में घूमते घूमते मेरा मन उचट गया है। वही राज्य, वही ज़िले, वही गाँव और वही किस्से। बिहार चुनाव से लौटा था तभी तय कर लिया कि अब और बिहार नहीं जानूँगा। सबसे पहले बिहार की किसी ख़बर को पढ़ना और उनसे ख़ुद को जोड़ना बंद कर दिया। एक ही जीवन है। कितना एक ही राज्य को जानूंगा और बार बार वही बातें क्यों जानूँगा। उसी तरह से अब मुझे दिल्ली दिखाई से भी ज़्यादा दिखाई देने लगी है। यूँ समझिये कि एक ही किताब को कितनी बार पढ़ेंगे, तब भी जब हर बार पढ़ने से नए-नए मतलब निकलते हों। मैंने अपना जीवन एक ही राज्य, एक ही भाषा और एक सी बातों को जानने के लिए समर्पित नहीं किया है। मेरी दिली ख़्वाहिश है कि रातों रात भाषा, पेशा, प्रदेश और संस्कृति बदल लूँ। इसी जीवन में कहीं और के जीवन में समा जाऊँ। मलयाली हो जाऊँ, मराठी हो जाऊँ। मेरा घर उड़ीसा के किसी शहर में हो जाए या बागडोगरा एयरपोर्ट के पास। अमरोहा से गुज़रते हुए लगता है कि यहीं मेरा घर होगा, करनाल क्रास करते ही लगता है कि इसी के किसी मोहल्ले में रह जाता तो अच्छा लगता। कभी लगता है कि ये वाली मिठाई की दुकान मेरी होती और मैं बेच रहा होता या ये वाली कंपनी मेरी होती और मैं चला रहा होता।
कविता ई किस्म के यह ख़्वाब फेसबुक स्टेटस के लिए नहीं हैं बल्कि भीतर समा गए उत्तर भारत से मुक्त होने की बेचैनी के हैं। मेरा पूरा अनुभव संसार उत्तर भारत से बना है। लगता है मैं उत्तर भारत में आजीवन कारावास की सज़ा काट रहा हूँ । इसलिए प्रयास करके महाराष्ट्र और चेन्नई के लोगों से दोस्ती की। उनसे बात करता हूँ। पहले भी अपने ब्लाग कस्बा पर लिखा है कि मुझे इस उत्तर भारत से मुक्ति चाहिए। उससे ज़्यादा टीवी में कुछ नया करने की बेचैनी को रास्ता चाहिए।