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लहर 2

23 अप्रैल 2022

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(1)

उठ उठ री लघु लोल लहर!

करुणा की नव अंगड़ाई-सी,

मलयानिल की परछाई-सी

इस सूखे तट पर छिटक छहर!

शीतल कोमल चिर कम्पन-सी,

दुर्ललित हठीले बचपन-सी,

तू लौट कहाँ जाती है री

यह खेल खेल ले ठहर-ठहर!

उठ-उठ गिर-गिर फिर-फिर आती,

नर्तित पद-चिह्न बना जाती,

सिकता की रेखायें उभार

भर जाती अपनी तरल-सिहर!

तू भूल न री, पंकज वन में,

जीवन के इस सूनेपन में,

ओ प्यार-पुलक से भरी ढुलक!

आ चूम पुलिन के बिरस अधर!

(2)

निज अलकों के अन्धकार मे तुम कैसे छिप आओगे?

इतना सजग कुतूहल! ठहरो, यह न कभी बन पाओगे!

आह, चूम लूँ जिन चरणों को चाँप-चाँपकर उन्हें नहीं

दुख दो इतना, अरे अरुणिमा ऊषा-सी वह उधर बही।

वसुधा चरण-चिह्न-सी बनकर यहीं पड़ी रह जावेगी ।

प्राची रज कुंकुम ले चाहे अपना भाल सजावेगी ।

देख मैं लूँ, इतनी ही तो है इच्छा? लो सिर झुका हुआ।

कोमल किरन-उँगलियो से ढँक दोगे यह दृग खुला हुआ ।

फिर कह दोगे;पहचानो तो मैं हूँ कौन बताओ तो ।

किन्तु उन्हीं अधरों से, पहले उनकी हँसी दबाओ तो।

सिहर रेत निज शिथिल मृदुल अंचल को अधरों से पकड़ो ।

बेला बीत चली हैं चंचल बाहु-लता से आ जकड़ो।

तुम हो कौन और मैं क्या हूँ?

इसमें क्या है धरा, सुनो,

मानस जलधि रहे चिर चुम्बित

मेरे क्षितिज! उदार बनो।

(3)

मधुप गुनगुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,

मुरझाकर गिर रही पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।

इस गम्भीर अनन्त नीलिमा मे असंख्य जीवन-इतिहास

यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य-मलिन उपहास।

तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती

तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती।

किन्तु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करनेवाले

अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरनेवाले।

यह बिडम्बना! अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं।

भूले अपनी, या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं ।

उज्जवल गाथा कैसे गाऊँ मधुर चाँदनी रातों की।

अरे खिलखिलाकर हँसते होनेवाली उन बातों की ।

मिला कहाँ वह सुख जिसका स्वप्न देखकर जाग गया?

आलिंगन मे आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया ?

जिसके अरुण कपोलों की मतवाली सुन्दर छाया में।

अनुरागिनि उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।

उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक का पन्था की।

सीवन को उधेड़कर देखोगे क्यों मेरी कन्था की?

छोटे-से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ ?

क्या यह अच्छा नहीं कि औरों को सुनता मै मौन रहूँ?

सुनकर क्या तुम भला करोगे-मेरी भोली आत्म कथा?

अभी समय भी नहीं-थकी सोई हैं मेरी मौन व्यथा।

(4)

ले चल वहाँ भुलावा देकर,

मेरे नाविक! धीरे धीरे।

जिस निर्जन में सागर लहरी।

अम्बर के कानों में गहरी

निश्चल प्रेम-कथा कहती हो,

तज कोलाहल की अवनी रे।

जहाँ साँझ-सी जीवन छाया,

ढोले अपनी कोमल काया,

नील नयन से ढुलकाती हो

ताराओं की पाँत घनी रे ।

जिस गम्भीर मधुर छाया में

विश्व चित्र-पट चल माया में

विभुता विभु-सी पड़े दिखाई,

दुख सुख वाली सत्य बनी रे।

श्रम विश्राम क्षितिज वेला से

जहाँ सृजन करते मेला से

अमर जागरण उषा नयन से

बिखराती हो ज्योति घनी से!

(5)

हे सागर संगम अरुण नील!

अतलान्त महा गंभीर जलधि

तज कर अपनी यह नियत अवधि,

लहरों के भीषण हासों में

आकर खारे उच्छ्वासों में

युग युग की मधुर कामना के

बन्धन को देता ढील।

हे सागर संगम अरुण नील।

पिंगल किरनों-सी मधु-लेखा,

हिमशैल बालिका को तूने कब देखा!

कवरल संगीत सुनाती,

किस अतीत युग की गाथा गाती आती।

आगमन अनन्त मिलन बनकर

बिखराता फेनिल तरल खील।

हे सागर संगम अरुण नील!

आकुल अकूल बनने आती,

अब तक तो है वह आती,

देवलोक की अमृत कथा की माया

छोड़ हरित कानन की आलस छाया

विश्राम माँगती अपना।

जिसका देखा था सपना

निस्सीम व्योम तल नील अंक में

अरुण ज्योति की झील बनेगी कब सलील?

हे सागर संगम अरुण नील!

(6)

उस दिन जब जीवन के पथ में,

छिन्न पात्र ले कम्पित कर में,

मधु-भिक्षा की रटन अधर में,

इस अनजाने निकट नगर में,

आ पहुँचा था एक अकिंचन।

लोगों की आखें ललचाईं,

स्वयं माँगने को कुछ आईं,

मधु सरिता उफनी अकुलाईं,

देने को अपना संचित धन।

फूलों ने पंखुरियाँ खोलीं,

आँखें करने लगी ठिठोली;

हृदय ने न सम्हाली झोली,

लुटने लगे विकल पागल मन।

छिन्न पात्र में था भर आता

वह रस बरबस था न समाता;

स्वयं चकित-सा समझ न पाता

कहाँ छिपा था, ऐसा मधुवन!

मधु-मंगल की वर्षा होती,

काँटों ने भी पहना मोती,

जिसे बटोर रही थी रोती

आशा, समझ मिला अपना धन।

(7)

बीती विभावरी जाग री!

अम्बर पनघट में डूबो रही

तारा-घट उषा नागरी।

खग-कुल कुल कुल-सा बोल रहा,

किसलय का अंचल डोल रहा,

लो यह लतिका भी भर लाई

मधु मुकुल नवल रस गागरी।

अधरों में राग अमन्द पिये,

अलकों में मलयज बन्द किये

तू अब तक सोई है आली।

आँखों मे भरे विहाग री!

(8)

तुम्हारी आँखों का बचपन!

खेलता था जब अल्हड़ खेल,

अजिर के उर में भरा कुलेल,

हारता था हँस-हँस कर मन,

आह रे, व्यतीत जीवन!

साथ ले सहचर सरस वसन्त,

चंक्रमण करता मधुर दिगन्त,

गूँजता किलकारी निस्वन,

पुलक उठता तब मलय-पवन।

स्निग्ध संकेतों में सुकुमार,

बिछल,चल थक जाता जब हार,

छिड़कता अपना गीलापन,

उसी रस में तिरता जीवन।

आज भी हैं क्या नित्य किशोर

उसी क्रीड़ा में भाव विभोर

सरलता का वह अपनापन

आज भी हैं क्या मेरा धन!

तुम्हारी आँखों का बचपन!

(9)

अब जागो जीवन के प्रभात!

वसुधा पर ओस बने बिखरे

हिमकन आँसू जो क्षोम भरे

ऊषा बटोरती अरुण गात!

तम-नयनो की ताराएँ सब

मुँद रही किरण दल में हैं अब,

चल रहा सुखद यह मलय वात!

रजनी की लाज समेटी तो,

कलरव से उठ कर भेंटो तो,

अरुणांचल में चल रही वात।

(10)

कितने दिन जीवन जल-निधि में

विकल अनिल से प्रेरित होकर

लहरी, कूल चूमने चलकर

उठती गिरती-सी रुक-रुककर

सृजन करेगी छवि गति-विधि में !

कितनी मधु-संगीत-निनादित

गाथाएँ निज ले चिर-संचित

तरल तान गावेगी वंचित!

पागल-सी इस पथ निरवधि में!

दिनकर हिमकर तारा के दल

इसके मुकुर वक्ष में निर्मल

चित्र बनायेंगे निज चंचल!

आशा की माधुरी अवधि में !

(11)

मेरी आँखों की पुतली में

तू बनकर प्रान समा जा रे!

जिसके कन-कन में स्पन्दन हो,

मन में मलयानिल चन्दन हो,

करुणा का नव-अभिनन्दन हो

वह जीवन गीत सुना जा रे!

खिंच जाये अधर पर वह रेखा

जिसमें अंकित हो मधु लेखा,

जिसको वह विश्व करे देखा,

वह स्मिति का चित्र बना जा रे !

(13)

वसुधा के अंचल पर

यह क्या कन-कन-सा गया बिखर?

जल शिशु की चंचल कीड़ा-सा,

जैसे सरसिज दल पर।

लालसा निराशा में ढलमल

वेदना और सुख में विह्वल

यह क्या है रे मानव जीवन?

कितना है रहा निखर।

मिलने चलने जब दो कन,

आकर्षण-मय चुम्बन बन,

दल के नस-नस मे बह जाती

लघु-लघु धारा सुन्दर।

हिलता-ढुलता चंचल दल,

ये सब कितने हैं रहे मचल

कन-कन अनन्त अम्बुधि बनते।

कब रुकती लीला निष्ठुर।

तब क्यों रे फिर यह सब क्यों?

यह रोष भरी लाली क्यों?

गिरने दे नयनों से उज्जवल

आँसू के कन मनहर।

वसुधा के अंचल पर।

(14)

अपलक जगती हो एक रात!

सब सोये हों इस भूतल में,

अपनी निरीहता सम्बल में

चलती हो कोई भी न बात!

पथ सोये हों हरियाली में,

हों सुमन सो रहे डाली में,

हो अलस उनींदी नखत पाँत!

नीरव प्रशान्ति का मौन बना,

चुपके किसलय से बिछल छता;

थकता हो पंथी मलय-बात।

वक्षस्थल में जो छिपे हुए

सोते हों हृदय अभाव लिए

उनके स्वप्नों का हो न प्रात।

(15)

काली आँखों का अन्धकार

तब हो जाता है वार पार,

मद पिये अचेतन कलाकार

उन्मीलित करता क्षितिज पार

वह चित्र! रंग का ले बहार

जिसमें हैं केवल प्यार प्यार!

केवल स्मितिमय चाँदनी रात,

तारा किरनों से पुलक गात,

मधुपों मुकुलों के चले घात,

आता हैं चुपके मलय वात,

सपनों के बादल का दुलार।

तब दे जाता हैं बूँद चार!

तब लहरों-सा उठकर अधीर

तू मधुर व्यथा-सा शून्य चीर,

सूखे किसलय-सा भरा पीर

गिर जा पतझड़ का पा समीर।

पहने छाती पर तरल हार।

पागल पुकार फिर प्यार प्यार!

(16)

अरे कहीं देखा हैं तुमने

मुझे प्यार करनेवाले को?

मेरी आँखों में आकर फिर

आँसू बन ढरनेवाले को?

सूने नभ में आग जलाकर

यह सुवर्ण-सा हृदय गलाकर

जीवन सन्ध्या को नहलाकर

रिक्त जलधि भरनेवाले को?

रजनी के लघु-तम कन में

जगती की ऊष्मा के वन में

उस पर पड़ते तुहिन सघन में

छिप, मुझसे डरनेवाले को?

निष्ठुर खेलों पर जो अपने

रहा देखता सुख के सपने

आज लगा है क्या वह कँपने

देख मौन मरनेवाले को?

(17)

शशि-सी वह सन्दुर रूप विभा

चाहे न मुझे दिखलाना।

उसकी निर्मल शीलत छाया

हिमकन को बिखरा जाना।

संसार स्वप्न बनकर दिन-सा

आया हैं नहीं जगाने,

मेरे जीवन के सुख निशीध!

जाते-जाते रूक जाना।

हाँ, इन जाने की घड़ियों

कुछ ठहर नहीं जाओगे?

छाया पथ में विश्राम नहीं,

है केवल चलते जाना।

मेरा अनुराग फैलने दो,

नभ के अभिनव कलरव में,

जाकर सूनेपन के तम में

बन किरन कभी आ जाना।

(18)

अरे आ गई हैं भूली-सी

यह मधु ऋतु दो दिन को,

छोटी-सी कुटिया में रच दूँ,

नई व्यथा साथिन को

वसुधा नीचे ऊपर नभ हो,

नीड़ अलग सबसे हो,

झाड़खंड के चिर पतझड़ में

भागो सूखे तिनको!

आशा से अंकुर झूलेंगे

पल्लव पुलकित होंगे,

मेरे किसलय का लघु भव यह,

आह, खलेगा किन को?

सिहर भरी कँपती आवेंगी

मलयानिल की लहरें,

चुम्बन लेकर और जगाकर

मानस नयन नलिन को।

जबाकुसुस-सी उषा खिलेगी

मेरी लघु प्राची में,

हँसी भरे उस अरुण अधर का

राग रँगेगा दिन को ।

अन्धकार का जलधि लाँधकर

आवेगी शशि-किरनें,

अन्तरिक्ष छिड़केगा कन-कन

निशि में मधुर तुहिन को ।

इस एकान्त सृजन में कोई

कुछ बाधा मत डालो,

जो कुछ अपने सुन्दर से है

दे देने दो इनको ।

(11)

निधरक तूने ठुकराया तब

मेरी टूटी मधु प्याली को,

उसके सूखे अधर माँगते

तेरे चरणों की लाली को।

जीवन-रस के बचे हुए कन,

बिखरे अम्बर में आँसू बन,

वही दे रहा था सावन घन

वसुधा की इस हरियाली को।

निदय हृदय में हूक उठी क्या,

सोकर पहली चूक उठी क्या,

अरे कसक वह कूक उठी क्या,

झंकृत कर सूखी डाली को?

प्राणों के प्यासे मतवाले

ओ झंझा से चलनेवाले।

ढलें और विस्मृति के प्याले,

सोच न कृति मिटनेवाली को।

(20)

ओ री मानस की गहराई!

तू सुप्त, शान्त कितनी शीतल

निर्वात मेघ ज्यों पूरित जल

नव मुकुर नीलमणि फलक अमल,

ओ पारदर्शिका! चिर चंचल

यह विश्व बना हैं परछाई!

तेरा विषाद द्रव तरल-तरल

मूर्च्छित न रहे ज्यों पिये गरल

सुख-लहर उठा री सरल-सरल

लधु-लधु सुन्दर-सुन्दर अविरल,

तू हँस जीवन की सुधराई!

हँस, झिलमिल हो लें तारा गन,

हँस खिले कुंज में सकल सुमन,

हँस, बिखरें मधु मरन्द के कन,

बनकर संसृति के तव श्रम कन,

सब कहें दें \'वह राका आई!\'

हँस ले भय शोक प्रेम या रण,

हँस ले काला पट ओढ़ मरण,

हँस ले जीवन के लघु-लघु क्षण,

देकर निज चुम्बन के मधुकण,

नाविक अतीत की उत्तराई!

(21)

मधुर माधवी संध्या मे जब रागारुण रवि होता अस्त,

विरल मृदल दलवाली डालों में उलझा समीर जब व्यस्त,

प्यार भरे श्मालम अम्बर में जब कोकिल की कूक अधीर

नृत्य शिथिल बिछली पड़ती है वहन कर रहा है उसे समीर

तब क्यों तू अपनी आँखों में जल भरकर उदास होता,

और चाहता इतना सूना-कोई भी न पास होता,

वंचित रे! यह किस अतीत की विकल कल्पना का परिणाम?

किसी नयन की नील दिशा में क्या कर चुका विश्राम?

क्या झंकृत हो जाते हैं उन स्मृति किरणों के टूटे तार?

सूने नभ में स्वर तरंग का फैलाकर मधु पारावार,

नक्षत्रों से जब प्रकाश की रश्मि खेलने आती हैं,

तब कमलों की-सी जब सन्ध्या क्यों उदास हो जाती है?

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रचनाएँ
लहर
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डॉ॰ प्रेमशंकर की मान्यता है कि 'लहर' में कवि एक चिन्तनशील कलाकार के रूप में सम्मुख आता है, जिसने अतीत की घटनाओं से प्रेरणा ग्रहण की है। प्रसाद के गीतों की विशेषता यही है कि उनमें केवल भावोच्छ्वास ही नहीं रहते, जिनमें प्रणय के विभिन्न व्यापार हों, किन्तु कई बार एक स्वस्थ जीवन-दर्शन की नियोजना भी होती है।
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लहर 1

23 अप्रैल 2022
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वे कुछ दिन कितने सुंदर थे ? जब सावन घन सघन बरसते इन आँखों की छाया भर थे सुरधनु रंजित नवजलधर से भरे क्षितिज व्यापी अंबर से मिले चूमते जब सरिता के हरित कूल युग मधुर अधर थे प्राण पपीहे के स्वर

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लहर 2

23 अप्रैल 2022
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(1) उठ उठ री लघु लोल लहर! करुणा की नव अंगड़ाई-सी, मलयानिल की परछाई-सी इस सूखे तट पर छिटक छहर! शीतल कोमल चिर कम्पन-सी, दुर्ललित हठीले बचपन-सी, तू लौट कहाँ जाती है री यह खेल खेल ले ठहर-ठहर!

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अशोक की चिन्ता

23 अप्रैल 2022
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जलता है यह जीवन पतंग जीवन कितना? अति लघु क्षण, ये शलभ पुंज-से कण-कण, तृष्णा वह अनलशिखा बन दिखलाती रक्तिम यौवन। जलने की क्यों न उठे उमंग? हैं ऊँचा आज मगध शिर पदतल में विजित पड़ा, दूरागत क्र

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प्रलय की छाया

23 अप्रैल 2022
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थके हुए दिन के निराशा भरे जीवन की सन्ध्या हैं आज भी तो धूसर क्षितिज में! और उस दिन तो; निर्जन जलधि-वेला रागमयी सन्ध्या से सीखती थी सौरभ से भरी रंग-रलियाँ। दूरागत वंशी रव गूँजता था धीवरों की छोटी

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ले चल वहाँ भुलावा देकर

23 अप्रैल 2022
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ले चल वहाँ भुलावा देकर मेरे नाविक ! धीरे-धीरे ।                            जिस निर्जन में सागर लहरी,                         अम्बर के कानों में गहरी,                      निश्छल प्रेम-कथा कहती हो

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निज अलकों के अंधकार में

23 अप्रैल 2022
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निज अलकों के अंधकार में तुम कैसे छिप जाओगे? इतना सजग कुतूहल! ठहरो,यह न कभी बन पाओगे ! आह, चूम लूँ जिन चरणों को चाँप-चाँप कर उन्हें नहीं दुख दो इतना, अरे अरुणिमा उषा-सी वह उधर बही. वसुधा चरण चिह्न

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मधुप गुनगुनाकर कह जाता

23 अप्रैल 2022
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मधुप गुनगुना कर कह जाता कौन कहानी अपनी, मुरझा कर गिर रही पत्तियां देखो कितनी आज धनि.           इस गंभीर अनंत नीलिमा में अस्संख्य जीवन-इतिहास-           यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य-मलिन उपह

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अरी वरुणा की शांत कछार

23 अप्रैल 2022
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अरी वरुणा की शांत कछार !           तपस्वी के वीराग की प्यार ! सतत व्याकुलता के विश्राम, अरे ऋषियों के कानन कुञ्ज! जगत नश्वरता के लघु त्राण, लता, पादप,सुमनों के पुञ्ज! तुम्हारी कुटियों में चुपचाप,

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हे सागर संगम अरुण नील

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हे सागर संगम अरुण नील !           अतलांत महा गम्भीर जलधि            तज कर अपनी यह नियत अवधि, लहरों के भीषण हासों में , आकर खारे उच्छवासों में           युग-युग की मधुर कामना के            बंधन क

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उस दिन जब जीवन के पथ में

23 अप्रैल 2022
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उस दिन जब जीवन के पथ में,         छिन्न पात्र ले कम्पित कर में ,         मधु-भिक्षा की रटन अधर में ,         इस अनजाने निकट नगर में ,         आ पँहुचा था एक अकिंचन . उस दिन जब जीवन के पथ में,   

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आँखों से अलख जगाने को

23 अप्रैल 2022
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आँखों से अलख जगाने को,              यह आज भैरवी आई है  उषा-सी आँखों में कितनी,              मादकता भरी ललाई है  कहता दिगन्त से मलय पवन              प्राची की लाज भरी चितवन है रात घूम आई मधुबन ,

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आह रे,वह अधीर यौवन

23 अप्रैल 2022
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आह रे, वह अधीर यौवन !          मत्त-मारुत पर चढ़ उद्भ्रांत ,           बरसने ज्यों मदिरा अश्रांत सिंधु वेला-सी घन मंडली, अखिल किरणों को ढँककर चली,           भावना के निस्सीम गगन,           बुद्ध

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तुम्हारी आँखों का बचपन

23 अप्रैल 2022
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तुम्हारी आँखों का बचपन !        खेलता था जब अल्हड़ खेल,        अजिर के उर में भरा कुलेल,         हारता था हँस-हँस कर मन,         आह रे वह व्यतीत जीवन ! तुम्हारी आँखों का बचपन !          साथ ले स

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अब जागो जीवन के प्रभात

23 अप्रैल 2022
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अब जागो जीवन के प्रभात !            वसुधा पर ओस बने बिखरे            हिमकन आँसू जो क्षोभ भरे            उषा बटोरती अरुण गात ! अब जागो जीवन के प्रभात !            तम नयनों की ताराएँ सब           

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कोमल कुसुमों की मधुर रात

23 अप्रैल 2022
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कोमल कुसुमों की मधुर रात !           शशि - शतदल का यह सुख विकास,           जिसमें निर्मल हो रहा हास,           उसकी सांसो का मलय वात  ! कोमल कुसुमों की मधुर रात !           वह लाज भरी कलियाँ अनंत

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कितने दिन जीवन जल-निधि में

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कितने दिन जीवन जल-निधि में  विकल अनिल से प्रेरित होकर    लहरी, कूल चूमने चल कर     उठती गिरती सी रुक-रुक कर      सृजन करेगी छवि गति-विधि में ! कितनी मधु- संगीत- निनादित    गाथाएँ निज ले चिर-संचि

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मेरी आँखों की पुतली में

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मेरी आँखों की पुतली में        तू बन कर प्रान समां जा रे ! जिससे कण कण में स्पंदन हों, मन में मलायानिल चंदन हों, करुणा का नव अभिनन्दन हों- वह जीवन गीत सुना जा रे  !         खिंच जाय अधर पर वह रे

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जग की सजल कालिमा रजनी

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जग की सजल कालिमा रजनी में मुखचन्द्र दिखा जाओ  ह्रदय अँधेरी झोली इनमे ज्योति भीख देने आओ  प्राणों की व्याकुल पुकार पर एक मींड़ ठहरा जाओ  प्रेम वेणु की स्वर- लहरी में जीवन - गीत सुना जाओ  स्नेहालि

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वसुधा के अंचल पर

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वसुधा के अंचल पर यह क्या कन- कन सा गया बिखर ? जल-शिशु की चंचल क्रीड़ा- सा  जैसे सरसिज डाल पर         लालसा निराशा में ढलमल        वेदना और सुख में विह्वल        यह या है रे मानव जीवन?        कि

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अपलक जगती हो एक रात

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अपलक जगती हो एक रात!       सब सोये हों इस भूतल में,       अपनी निरीहता संबल में,              चलती हों कोई भी न बात!       पथ सोये हों हरयाली में,       हों सुमन सो रहे डाली में,              हो

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जगती की मंगलमयी उषा बन

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जगती की मंगलमयी उषा बन,                करुणा उस दिन आई थी, जिसके नव गैरिक अंचल की प्राची में भरी ललाई थी .                भय- संकुल रजनी बीत गई,                भव की व्याकुलता दूर गई, घन-तिमिर-भा

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चिर तृषित कंठ से तृप्त-विधुर

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चिर संचित कंठ से तृप्त-विधुर वह कौन अकिंचन अति आतुर अत्यंत तिरस्कृत अर्थ सदृश ध्वनि कम्पित करता बार-बार, धीरे से वह उठता पुकार मुझको न मिला रे कभी प्यार.            सागर लहरों सा आलिंगन        

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काली आँखों का अंधकार

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  काली आँखों का अंधकार      जब हो जाता है वार पार,      मद पिए अचेतन कलाकार      उन्मीलित करता क्षितित पार                वह चित्र ! रंग का ले बहार                जिसमे है केवल प्यार प्यार!     

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अरे कहीं देखा है तुमने

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      अरे कहीं देखा है तुमने       मुझे प्यार करने वाले को?       मेरी आँखों में आकर फिर       आँसू बन ढरने वाले को?                सूने नभ में आग जलाकर                यह सुवर्ण-सा ह्रदय गला कर

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शशि-सी वह सुन्दर रूप विभा

25 अप्रैल 2022
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शशि सी वह सुंदर रूप विभा                छाहे न मुझे दिखलाना. उसकी निर्मल शीतल छाया                हिमकन को बिखरा जाना. संसार स्वप्न बनकर दिन-सा                 आया है नहीं जगाने, मेरे जीवन के सु

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अरे!आ गई है भूली-सी

25 अप्रैल 2022
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अरे! आ गई है भूली- सी यह मधु ऋतु दो दिन को, छोटी सी कुटिया मैं रच दू, नयी व्यथा-साथिन को! वसुधा नीचे ऊपर नभ हो, नीड़ अलग सबसे हो, झारखण्ड के चिर पतझड में भागो सूखे तिनको! आशा से अंकुर झूलेंगे

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निधरक तूने ठुकराया तब

25 अप्रैल 2022
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निधरक तूने ठुकराया तब          मेरी टूटी मधु प्याली को, उसके सूखे अधर मांगते          तेरे चरणों की लाली को. जीवन-रस के बचे हुए कन,          बिखरे अमर में आँसू बन, वही दे रहा था सावन घन        

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ओ री मानस की गहराई

25 अप्रैल 2022
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ओ री मानस की गहराइ! तू सुप्त , शांत कितनी शीतल निर्वात मेघ ज्यों पूरित जल          नव मुकुर नीलमणि फलक अमल,          ओ परदर्शिका! चिर चन्चल          यह विश्व बना है परछाई! तेरा विषद द्रव तरल-तरल

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मधुर माधवी संध्या में

25 अप्रैल 2022
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मधुर माधवी संध्या मे जब रागारुण रवि होता अस्त, विरल मृदल दलवाली डालों में उलझा समीर जब व्यस्त, प्यार भरे श्मालम अम्बर में जब कोकिल की कूक अधीर नृत्य शिथिल बिछली पड़ती है वहन कर रहा है उसे समीर तब

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अंतरिक्ष में अभी सो रही है

25 अप्रैल 2022
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अंतरिक्ष में अभी सो रही है उषा मधुबाला, अरे खुली भी अभी नहीं तो प्राची की मधुशाला.        सोता तारक-किरन-पुलक रोमावली मलयज वात,        लेते अंगराई नीड़ों में अलस विहंग मृदु गात, रजनि रानी की बिखरी

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शेरसिंह का शस्त्र समर्पण

25 अप्रैल 2022
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"ले लो यह शस्त्र है गौरव ग्रहण करने का रहा कर मैं अब तो ना लेश मात्र . लाल सिंह ! जीवित कलुष पंचनद का देख दिये देता है सिहों का समूह नख-दंत आज अपना" "अरी, रण - रंगिनी ! कपिशा हुई थी लाल तेरा

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पेशोला की प्रतिध्वनि

25 अप्रैल 2022
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     १. अरुण करुण बिम्ब ! वह निर्धूम भस्म रहित ज्वलन पिंड! विकल विवर्तनों से विरल प्रवर्तनों में श्रमित नमित सा पश्चिम के व्योम में है आज निरवलम्ब सा . आहुतियाँ विश्व की अजस्र से लुटाता रहा सत

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