इंग्लैंड से रसायन विज्ञान की उच्च परीक्षा पास कर लेने के पश्चात् जब प्रफुल्लचंद्र राय भारत आये तो उन्हें कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में सहायक प्रोफेसर का पद मिला I उन दिनों ढाई सौ रुपया महीना उनका वेतन था जबकि अंग्रेज़ शिक्षक को एक हज़ार से भी अधिक वेतन दिया जाता था I इस अन्याय के प्रतिकार स्वरुप श्री राय ने शिक्षा विभाग के अध्यक्ष क्राप्ट साहब से शिकायत की I उत्तर मिला, आपको कोई बाध्य नहीं करता कि आप इस नौकरी को स्वीकार करें I यदि आप अपनी योग्यता को इतना अधिक समझते हैं तो कहीं भी वैसा कार्य करके दिखा सकते हैं I यह भारतीयों का अपमान था I प्रफुल्ल बाबू ने उसी दिन ठान लिया कि अपनी योग्यता के बल पर इसका जवाब ज़रूर देंगे I नौकरी के साथ-साथ वे विज्ञान संबंधी नई-नई खोजें करते रहे I 1906 में आठ सौ रुपए से बंगाल केमिकल एंड फार्मास्युटिकल वर्क्स नाम से कारखाना खोला I अनेकों प्रभावशाली दवाओं का अविष्कार किया और 10-12 साल में ही इतनी प्रगति हुई कि कारखाने का वार्षिक आय-व्यय लाखों में पहुँच गया I अनेकों असमर्थ छात्रों को काम मिला और अनेकों को कॉलेज में अध्ययन करने के साधन प्राप्त हुए, जिनमें से कई आगे चलकर प्रसिद्ध वैज्ञानिक बने I
वे एक आदर्श शिक्षक थे I उनका निजी खर्च बहुत कम था I शेष पूरी आमदनी वे होनहार ग़रीब छात्रों को आगे बढ़ने, अपने वैज्ञानिक आविष्कारों और समाज सुधार के कार्यों में लगाते रहे I किन्तु दान का अभिमान नहीं था I वे कहते थे, सर्वश्रेष्ठ दान तो सहानुभूति रखना, प्रेम भरे शब्द कहना, प्रसन्नता प्रदान करना, हितकारी सम्मति देना और थके हुए को विश्राम देना है I इनकी तुलना धन-दान कभी नहीं कर सकता I अपने छात्रों को वे नौकरी की अपेक्षा निजी उद्योगों के लिए प्रेरित करते और समझाते थे कि इससे देश की उन्नति की संभावनाएं अपेक्षाकृत बहुत अधिक होती हैं I किसी भी देश के निवासी अपने ही प्रयत्न और पराक्रम से ऊंचा उठते हैं I परिणामस्वरूप बंगाली युवकों का ध्यान इस ओर गया और कुछ वर्षों में ही रासायनिक कारखानों में काफ़ी वृद्धि हुई I
प्रफुल्लचंद्र भले ही विदेश में पढ़े थे और भारत के एक सुप्रसिद्ध कॉलेज के प्रोफेसर थे, पर वे एक सच्चे संत थे I उन्होंने समाज सुधार, पीड़ितों की सेवा, स्वराज्य आन्दोलन में उल्लेखनीय भूमिका निभाई I राष्ट्रसेवा और विज्ञान की साधना के लिए उन्होंने विवाह नहीं किया और सादगी भरा जीवन जिया I वे संसार के प्रसिद्ध वैज्ञानिकों में गिने जाते थे I विदेशों के बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी उनसे मिलने आते थे I उनका लिखा ग्रन्थ ‘हिन्दू रसायन शास्त्र का इतिहास’ भारत ही नहीं अपितु विदेशों में भी साइंस कॉलेजों में पाठ्य-पुस्तक की तरह प्रयुक्त होता है I 1944 ई० में 83 वर्ष की आयु में यह प्रतिभा इस संसार से विदा हो गई I
आज भी हमारे राष्ट्र में प्रतिभाओं की कमी नहीं है I कमी है तो कर्तव्यनिष्ठा की I उनके समय में राष्ट्र बहुत उन्नतिशील नहीं था I वे चाहते तो विदेश में ही बस जाते और ठाट-बाट का जीवन जीते परन्तु राष्ट्रहित के लिए कार्य करने की प्रबल इच्छा के परिणामस्वरूप उन्होंने स्वयं कठोर जीवन जिया और राष्ट्र के गौरव कहलाये I
जहाँ प्रत्येक विद्यार्थी को उनका जीवन अपनी प्रतिभा को राष्ट्र हित में समर्पित करने की प्रेरणा देता है बहीं प्रत्येक अध्यापक को भी उच्च आदर्शों की ओर प्रेरित करता है I उनका सम्पूर्ण जीवन विद्यार्थियों को व्यक्तित्ववान, राष्ट्रभक्त एवं कर्तव्यनिष्ठ बनाने हेतु समर्पित था I वे आजीवन ब्रह्मचारी रहे किन्तु संतान स्वरुप ऐसे सुयोग्य शिष्य निर्मित किये जिन्होंने अपनी, अपने गुरु की एवं राष्ट्र की कीर्ति कि आगे बढ़ाया I
जब वे प्रेसीडेंसी कॉलेज की नौकरी छोड़कर यूनिवर्सिटी के साइंस कॉलेज में गए, तो विदाई के समारोह में उन्होंने कहा था कि यदि कोई मुझसे पूछे कि प्रेसीडेंसी कॉलेज में इतने बरस काम करके तुमने कितनी पूंजी एकत्रित की ? विद्यार्थियों की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, “मैं कहूँगा, मेरा माल-ख़ज़ाना यहाँ है I यदि प्रत्येक अध्यापक उनके समान सच्चा अध्यापक बन जाए तो आज की युवा पीढ़ी मार्ग भटकने की अपेक्षा व्यक्तित्व संपन्न बनकर राष्ट्रव्यापी अनेकों समस्याओं का समाधान कर सकती है I