दृष्टिहीन लोगों के लिये ब्रेल लिपि का निर्माण करने के लिये लुई ब्रेल सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध हैं I फ़्रांस में जन्मे लुई ब्रेल दृष्टिहीनों के लिए ज्ञान के चक्षु बन गए। दुनिया जानती है कि ब्रेल लिपि का निर्माण करने वाले लुई स्वयं भी दृष्टिहीन थे।
लुई ब्रेल का जन्म 4 जनवरी 1809 मे फ़्रांस के छोटे से ग्राम कुप्रे में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। इनके पिता साइमन रेले ब्रेल शाही घोड़ों के लिये काठी और जीन बनाने का कार्य करते थे। बचपन में एक दुर्घटना में लुई की आँखों की ज्योति चली गई I
लेकिन लुई कोई साधरण बालक नहीं था। उसके मन में संसार से लड़ने की प्रबल इच्छाशक्ति थी। उसने हार नहीं मानी और फ्रांस के मशहूर पादरी बैलेन्टाइन की शरण में जा पहुंचा। पादरी बैनेन्टाइन के प्रयासों के चलते 1819 में इस दस वर्षीय बालक को ‘रॉयल इंस्टिट्यूट फॉर ब्लाइंड्स’ में दाखिला मिल गया। कुछ वर्ष बाद लुई को पता चला कि शाही सेना के सेवानिवृत कैप्टेन चार्ल्स बार्बर ने सेना के लिये ऐसी कूटलिपि का विकास किया है जिसकी सहायता से वे टटोलकर अंधेरे में भी संदेशों के पढ़ सकते थे। कैप्टेन चार्ल्स बार्बर का उद्देश्य युद्ध के दौरान सैनिकों को आने वाली परेशानियों को कम करना था। बालक लुई का मष्तिष्क सैनिकों के द्वारा टटोलकर पढ़ी जा सकने वाली कूटलिपि में दृष्टिहीन व्यक्तियो के लिये पढ़ने की संभावना ढूंढ रहा था। लुई की उत्सुकता और बुलंद हौसले को देखते हुए पादरी बैलेन्टाइन ने लुई की कैप्टेन से मुलाकात करायी। मुलाकात के दौरान लुई ने कैप्टेन के द्वारा सुझायी गयी कूटलिपि में कुछ संशोधन प्रस्तावित किये। कैप्टेन चार्ल्स बार्बर उस दृष्टिहीन बालक का आत्मविश्वास देखकर दंग रह गये। उन्होंने लुई के बताए संशोधनों को स्वीकार किया।
कालान्तर में स्वयं लुई ब्रेल ने आठ वर्षो के अथक परिश्रम से इस लिपि में अनेक संशोधन किये और अंततः 1829 में छह बिन्दुओ पर आधारित ऐसी लिपि बनाने में सफल हुये। लुई ब्रेल के आत्मविश्वास की अभी और परीक्षा होनी शेष थी I उनके द्वारा अविष्कृत लिपि को तत्कालीन शिक्षाशास्त्रियों द्वारा मान्यता नहीं दी गयी और उसका माखौल उड़ाया गया। सेना के सेवानिवृत कैप्टेन चार्ल्स बार्बर के नाम का साया लगातार इस लिपि पर मंडराता रहा और सेना के द्वारा उपयोग में लाये जाने के कारण इस लिपि को सेना की कूटलिपि ही समझा गया परन्तु लुई ब्रेल ने हार नहीं मानी और पादरी बैलेन्टाइन के संवेदनात्मक आर्थिक एवं मानसिक सहयोग से इस शिष्य ने अपनी अविष्कृत लिपि को दृष्टिहीन व्यक्तियों के मध्य लगातार प्रचारित किया। उन्होंने सरकार से प्रार्थना की कि इसे दृष्टिहीनों की भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की जाए। यह लुई का दुर्भाग्य रहा कि उनके प्रयासों को सफलता नहीं मिल सकी और तत्कालीन शिक्षाशास्त्रियों द्वारा इसे भाषा के रूप में मान्यता दिये जाने योग्य नहीं समझा गया। अपने प्रयासों को सामाजिक एवं संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिये संर्घषरत लुई 43 वर्ष की अवस्था में जीवन की लड़ाई से हार गये लेकिन मृत्यु उनका हौसला नहीं तोड़ सकी I
6 जनवरी 1852 को लुई ब्रेल की जीवन-ज्योति सदा के लिए बुझ गयी लेकिन उनके द्वारा अविष्कृत छह बिन्दुओ पर आधारित लिपि ने दृष्टिहीनों के लिए एक ऐसा दीया जला दिया जिसका उजास अक्षुण्ण है I