महात्मा और असुर; यह पढ़ कर आप भी चौंक गए होंगे। परंतु यह सच है। ये निम्न कहानी वाल्मीकि रामायण से आपके लिए प्रस्तुत है।
बहुत पहले की बात है (शायद त्रेता या द्वापर की) जब देवता और असुर परस्पर मिलकर रहते थे ।
उन दिनों वृत्र नाम से प्रसिद्ध एक बहुत बड़ा असुर रहता था ।
सभी जगह उसका बड़ा आदर था। वह 100 योजन चौड़ा और 300 योजन ऊंचा था।
वह तीनों लोकों को आत्मीय समझ कर प्यार करता था और सबको स्नेह भरी दृष्टि से देखा था। उसे धर्म का यथार्थ ज्ञान था। वह कृतज्ञ और स्थिरप्रज्ञ था तथा पूर्णतया सावधान रहकर धन-धान्य से भरी- पूरी पृथ्वी का धर्म पूर्वक शासन करता था।
उसके शासनकाल में पृथ्वी संपूर्ण कामनाओं को देने वाली थी। यहां फल, फूल और मूल सभी सरस होते थे। महात्मा वृत्र के राज्य में यह भूमि बिना जोते-बोये ही अन्न उत्पन्न करती तथा धन-धान्य से भली भांति संपन्न रहती थी।
इस प्रकार वह वृत्र नामक असुर बहुत समृद्धिशाली एवं अद्भुत राज्य का पालन करता था। उसके ऊपर भगवान विष्णु का भी वरद हस्त था व उसे विष्णु जी का स्नेह प्राप्त था।
एक समय वृत्रासुर के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मैं परम उत्तम तप करूं क्योंकि तप ही परम कल्याण का साधन है। दूसरा सारा सुख तो मोह मात्र ही है। उसने अपने बड़े पुत्र मधुरेश्वर को राजा बना दिया और वह कठोर तपस्या करने लगा।
इंद्र की समस्या और भगवान विष्णु की शरण
वृत्रासुर के तपस्या में लग जाने पर इंद्र दुखी होकर भगवान विष्णु के पास गए और बोले - महाबाहो, तपस्या करते हुए वृत्रासुर ने समस्त लोक जीत लिए। वह धर्मात्मा असुर बलवान हो गया है; अतः मैं उसे पर शासन नहीं कर सकता । यदि वह इसी प्रकार तपस्या करता रहा तो हम सब देवताओं को उसके अधीन ही रहना पड़ेगा। इंद्र ने आगे कहा देवेश्वर आप उस परम उदार असुर की उपेक्षा कर रहे हैं इसीलिए वह शक्तिशाली होता जा रहा है। यदि आप कुपित हो जाए तो वह क्षण भर भी जीवित नहीं रह सकता।
है विष्णु जब से आपके साथ उसका प्रेम हो गया है तभी से उसने संपूर्ण लोगों का आधिपत्य प्राप्त कर लिया है। अतः आप अच्छी प्रकार ध्यान देकर संपूर्ण लोगों पर कृपा कीजिए। आपकी रक्षा से ही सारा जगत शांत एवं निरोग रह सकता है। हम सब देवता आपकी और देख रहे हैं। वृत्रासुर का वध एक महान कार्य है उसे करके आप इन देवताओं पर उपकार कीजिए। प्रभु आपने सदा ही हम देवताओं की सहायता की है; यह असुर दूसरों के लिए अजय है परंतु आपके लिए नहीं है। आप ही हम सब के आश्रयदाता हो।
भगवान विष्णु की कुटिलता
सहस्त्र नेत्र धारी इंद्र और अन्य देवताओं की प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने इस प्रकार कहा:
1: देवताओं तुम्हारी इस प्रार्थना के पहले से ही में महामना वृत्रासुर के स्नेही बंधन में बंधा हुआ इसलिए तुम्हारा प्रिय करने के उद्देश्य से भी मैं उसे महान असुर का वध नहीं करूंगा।
2. परंतु तुम सबके उत्तम सुख की व्यवस्था करना मेरा आवश्यक कर्तव्य है; इसलिए मैं ऐसा उपाय बताऊंगा जिससे देवराज इंद्र उसका वध कर सकेंगे। देवतागणों मैं अपने स्वरूप को तीन भागों में विभक्त करूंगा और इंद्र को वृत्र का वध करने का उपाय बताऊंगा ।
वृत्र का वध
भगवान विष्णु के इस प्रकार कहने पर देवताओं
ने कहा ठीक है प्रभु जैसा आप कहते हैं वैसा ही हो। भगवान विष्णु ने इंद्र को
उपाय बताया । इंद्र आदि सभी देवता वहां
गए जहां महान असुर वृत्र तपस्या कर रहा
था। वहां उन्होंने देखा की असुर श्रेष्ठ वृत्र अपने तप से सब और व्याप्त हो रहा
है और ऐसी तपस्या कर रहा है मानो तीनों लोगों और आकाश में छा जाएगा ।
पहले तो उसे देखते ही देवता लोग घबरा गए और
सोचने लगे कि हम कैसे इसका वध करेंगे और कैसे इसकी पराजय होगी। कुछ देवता तो
भाग भी गए । परंतु इंद्र ने विष्णु जी के बताए हुए के अनुसार दोनों हाथों से
वज्र उठाकर उस असुर के मस्तक पर दे मारा। इंद्र का वह वज्र प्रलय काल की अग्नि
के समान भयंकर और विष्णु जी के तेज से दीप्तिमान था। उसकी चोट से कट कर असुर का मस्तक धरती
पर गिर गया ।
टिप्पणी : कहानी
इस के आगे भी है परंतु तात्पर्य यहाँ तक ये ही कि इतने धर्मात्मा व प्रजापालक राजा को भी देवताओं के राजा इंद्र
सहन नहीं कर सके और भगवान विष्णु ने भी –उससे स्नेह बंधन होने के बावजूद उसे
मारने में अपनी शक्तियाँ इंद्र को प्रदान करीं क्योंकि वह असुर जाति से था और
देवतागण देव जाती से ।
(सौ. वाल्मीकि रामायण)