भाग 5-श्लोक 2/48 का विवरण व 2/47 व 2/48 का सारांश।
पिछले भाग - भाग 4 में राग, द्वेष, आसक्ति शब्दों पर चर्चा की गयी थी। ये शब्द गीता में अनेकों बार आते हैं ।
अब दो प्रमुख श्लोकों में से श्लोक 2/48 की तरफ बढ़ते हैं। 2/47 पर चर्चा भाग 3 में की गयी थी।
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय |
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते || ४८ ||
इसका अर्थ है:
हे अर्जुन! आसक्ति को त्याग कर समभाव में स्थित होकर अपना कर्म करो |
सफलता और असफलता में समभाव रखना भी योग है।
याद करें कि श्लोक 2/47 में कहा गया था की ‘तेरा कर्म करने में ही अधिकार है; कर्म फल पर कभी नहीं’।
अब श्लोक 2/48 में कहा जा रहा है कि आसक्ति को त्याग कर अपना कर्म करो।
आसक्ति शब्द का अर्थ आप समझ चुके हैं अर्थात आने वाले कर्म फल/परिणाम की अत्याधिक लालसा। यह
लालसा नहीं रखनी है।
पहले यह कहा गया था कि कर्म तो किसी फल/परिणाम के लिए ही किया जा रहा है। परंतु:
· उस फल पर न तो अपना अधिकार समझो; और
· न ही कर्म करते हुए; फल की लालसा में डूबे रहो।
ऐसा होने पर फल मिलने/न मिलने की अनिश्चितता के कारण कुशलता प्रभावित होगी अर्थात कम हो जाएगी।
यहाँ कर्म करते हुए समभाव में रहना है। और यदि आसक्ति होगी तो सम भाव तो नहीं हो सकता।
कर्म का परिणाम तो आएगा, आपके और आपके अन्य सहयोगियों के कर्म के अनुसार, और साधनों के अनुसार ।
और परिणाम तो सफलता या असफलता- में से ही कुछ होगा। परंतु:
· सफलता में ऐसा न हो कि तुम्हारे पैर जमीन पर ही न पड़ें; और
· असफलता में तुम depression में ही आ जाओ।
जरा सोचें:
एक सफलता से आपको कुबेर का खज़ाना नहीं मिलने वाला है; और एक असफलता से ऐसा नहीं हैं कि बस आपका जीवन बर्बाद हो जाएगा।
दोनों ही स्थितियों को सम भाव से स्वीकार करके जीवन में आगे बढ़ना है।
आपने इंगलिश का एक proverb सुना होगा -‘take it in stride’ –यह विशेषतय किसी परेशानी या दुर्भाग्य पूर्ण घटना के बाद ही कहा जाता है। इसका अर्थ भी बिलकुल वही है कि इस दुर्घटना को भी जीवन का एक कदम मान कर शांति से स्वीकार करो।
कृपया ध्यान दें:
· बड़े बड़े सर्जनों से भी कभी एक ऑपरेशन असफल हो जाता है;
· बड़े बड़े batsmen भी कभी duck पर उड़ते हैं ;
· बड़े बड़े प्रबन्धक भी गलत decision कर जाते हैं।
तो क्या वे अपना दिमाग असफलता के बारे में सोच सोच कर खराब करते हैं ? जी नहीं; बल्कि इस घटना से सीख ले कर ; वे अपने अगले कदम का सोचते हैं।
ऐसा ही हमारे एक भूत पूर्व राष्ट्रपति श्री ए. पी. जे. अबुल कलाम ने कहा था के जीत न मिली परंतु सीख तो मिली।
तो ये हुआ सफलता और असफलता में सम भाव रखना।
जब आप का चित्त इस स्थिति में सम भाव में आ गया तो अपने काफी स्थिरता प्राप्त कर ली
है।
और चित्त की स्थिरता प्राप्त करना ही योग का
प्रमुख उद्देश्य है।
आइये कर्म योग के दोनों प्रमुख श्लोकों 2/47 व 2/48 का सारांश देखें:
1. कर्ता का कर्म करने में ही अधिकार है –उसके फल/परिणाम पर नहीं।
2. अपने निर्धारित कर्म पूरे ध्यान,निष्ठा और कौशल के साथ करने हैं।
3. कर्म तो निश्चित ही किसी फल/परिणाम के लिए किया जा रहा है और फल तो स्वाभाविक है कि आएगा ही।
4. कर्म करते हुए फल में आसक्ति नहीं रखनी है। सफलता/असफलता के काल्पनिक विचार (अच्छे या बुरे) कर्म
को प्रभावित नहीं करेंगे।
5. परिणाम –सफलता हो या असफलता; दोनों स्थितियों को समभाव से स्वीकार करके जीवन में आगे बढ़ते रहें।
समभाव में रहना भी योग है।
दोनों श्लोकों -2/47 व 2/48 में कर्मों से पहले “मेरे” और “निर्धारित” शब्द प्रयोग किए गए है। कौन से कर्म
आपके “मेरे” हैं और कौन से “निर्धारित” ; यह अगले भाग में स्पष्ट किया जाएगा ।
धन्यवाद।