परन्तु गणतंत्र में चुनाव तो आम बात है और फिर
चुनाव होंगे और होते रहेंगे.
सभी (आम नागरिक) इस बात से सहमत होंगे कि
प्रतिस्पर्धता जो गणतंत्र में एक स्वस्थ घटना होनी चाहिए, इस बार लगभग महाभारत में बदल गयी. जैसे महाभारत
में कोई मर्यादाएं नहीं बची थीं, ऐसे ही भारत में भी
अधिकांश मर्यादाएं तार तार हो गयीं.
स्वर्गीय धर्मवीर भारती के प्रसिद्ध रचना ‘अंधा
युग’ की निम्न पंक्तियाँ काफी उपयुक्त हैं:
“टुकड़े-टुकड़े हो बिखर चुकी मर्यादा;
उसको दोनों ही पक्षों ने तोडा है;
पांडवों ने कुछ कम, कौरवों
ने कुछ ज्यादा.
...........
दोनों पक्षों में विवेक ही हारा,
दोनों ही पक्षों में जीता अंधापन,
भय का अंधापन, ममता का
अंधापन;
अधिकारों का अंधापन जीत गया”.
यहाँ तो केवल सत्ता का अंधापन था और शायद हारने के भय का अंधापन,
ये मर्यादाएं तोड़ने वाले सभी हमारे समाज के
ताकतवर, देश चलाने वाले और उनके महत्वपूर्ण सलाहकार-सभी
सत्ताधारी-या कहा जाए समाज के “श्रेष्ट” व्यक्ति ही हैं- सत्ता ये ही चलाते हैं.
गीता में श्लोक 3:21 में
कहा है:
“यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:;
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते”.
अर्थात
श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं.
तो अब कौन समाज के लिए सोचेगा और कौन सुधारेगा?
यहाँ सीधे सुधारने की चर्चा की जा रही है क्योंकि
लगभग दो महीनों में (और वास्तव में उस से पहले से भी) जो भाषा और व्यवहार चला है
वह किसी रूप में भी सीखने और अनुसरण करने योग्य नहीं है. अफ़सोस तो यह है कि समाज
का प्रत्येक व्यक्ति विशेषतय: बच्चे और नौजवान, इससे प्रभावित हुआ
है. लगातार दोहराए जाने के कारण सबके
मस्तिष्क में ऐसे व्यवहार,
भाषा इत्यादि का काफी प्रभाव पड़ गया है जिसे
बदलना आसान नहीं है.
अब कैसे उनकी मस्तिष्क में इस प्रभाव को कम किया
जाए. यही सुधार का विषय है. हमारे अध्यापक मेहनत करके बच्चों को गाली न देना, अपशब्दों का प्रयोग न करना, अच्छा व्यवहार करना इत्यादि सिखाते हैं –और ऐसा
करने (अर्थात गाली या अपशब्द बोलने) पर दंड भी देते हैं. परन्तु इन “श्रेष्ठ”
व्यक्तियों ने तो अपने आचरण से सब मटियामेट कर दिया.
अपने ही पिछले इतिहास में ही राजनैतिक प्रतिस्पर्धा
के कितने ही उदाहरण देखे जा सकते हैं परन्तु ऐसी गाली गलौज कभी नहीं हुई.
क्या हमारी राजनीति में मानसिक बौने अधिक हैं?
यह ठीक है कि गणतंत्र में जनता सर्वोपरि ही (चाहे
पांच वर्ष में एक बार) परन्तु क्या जनता के द्वारा चुने जाने वाले प्रतिनिधि सर्वोपरि
से भी ऊपर हो गए कि वे जो चाहे बोल सकें-बिना किसी उत्तरदायित्व के. असली मुद्दों
की बात न करके लम्बे लम्बे भाषणों में मर्यादाओं की धज्जियाँ उड़ाते रहें-यह
गणतंत्र में कहाँ तक उचित है.
निर्वाचन आयोग और हमारी न्याय व्यवस्था इसमें
क्या कर सकती थी और क्या नहीं – यह भी सोच का और विश्लेषण का विषय है. (एक प्रश्न
निर्वाचन आयोग के लिए उठता है कि क्या यह लगभग पौने दो महीनों का लम्बा अंतराल
आवश्यक था; क्या यह कम नहीं किया जा सकता था? –दो महीने में देश का सरकारी कार्य काफी प्रभावित
हुआ होगा).
इसमें मीडिया का भी कुछ कम उत्तरदायित्व नहीं है.
यदि मीडिया अपने लिए बनायीं गयी आचार संहिता को और बेहतर बना लें कि ऐसी वाणी/
गाली व तथ्य रहित तर्क वितर्क का प्रचार नहीं करेंगे तो काफी हद तक समस्या समाप्त
हो सकती है.
परन्तु अफ़सोस तो यह है कि मीडिया कर्मी भी तो
समाज के ही अंग है. क्या वे ऐसी उच्च-स्तर की आचार संहिता बना सकेंगे और उस पर
स्थिर रह सकेंगे?
कोई भी नदी जब तक किनारों की मर्यादाओं में बहती
हैं जीवनदायिनी होती है. किनारों की मर्यादाएं तोड़ते ही वह जीवन भक्षिनी एवं विनाश
कारिणी बन जाती है.
यही बात समाज पर भी लागू है.
यह दोषारोपण का समय नहीं है. दोषारोपण से कोई लाभ
भी होने वाला नहीं है क्योंकि कोई भी “श्रेष्ठ पुरुष” तो दोष मानेगा ही नहीं.
अत: देश/समाज हित को ही केन्द्रित रख कर आगे बढ़ें और सोचें कि
समाज की दिशा को कैसे बेहतर बनाया जाए.