अभी तक के 5 भागों में:
कर्मयोग के दो प्रमुख श्लोकों -2/47 व 2/48 पर और राग, द्वेष, आसक्ति शब्दों पर चर्चा की गयी।
आपको याद होगा कि कर्म शब्द से पहले –श्लोक 2/47 में कर्म से पहले ‘निर्धारित’; और श्लोक 2/48 में ‘अपने’ प्रयोग किए गए थे।
एक और श्लोक हैं -अध्याय 3 श्लोक 8:
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः |
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः || ८ ||
अर्थात अपना नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है | कर्म के बिना तो शरीर-निर्वाह भी नहीं हो सकता।
कर्म शब्द का सामान्य अर्थ तो सभी को मालूम है। परंतु ‘अपने, 'निर्धारित' और 'नियत' कर्म क्या हैं ??
ये ही आज की चर्चा है।
गीता तो शुरू ही ‘कर्म’ के विषय पर हुई थी।
उस समय, युद्ध के मैदान में, अर्जुन से क्या कर्म अपेक्षित था –या उसके लिए निर्धारित था?
आप सभी जानते हैं की उसका काम तो लड़ने के लिए तैयार होना ही था। अब वह कह रहा है कि मैं नहीं लड़ूँगा अर्थात अपना कर्म नहीं करूंगा।
ऊपर अध्याय 3 के श्लोक 8 में भगवान
श्री कृष्ण ने ये ही तो अर्जुन को समझाया।
जैसे अर्जुन के कर्म निर्धारित और अपेक्षित थे, ऐसे ही प्रत्येक व्यक्ति के कर्म होते हैं ।
कुछ कर्म तो समाज के द्वारा नियत/निर्धारित हैं ; आप एक समाज के अंग हैं और परिवार भी समाज का अंग है।
------व्यक्ति की आयु के अनुसार, उसके role के अनुसार जैसे माता, पिता, भाई, बहन, शिक्षक इत्यादि के कर्तव्य जैसे विद्यार्थी के लिए पढ़ना, शरीर को विकसित करना ;
------ संस्थागत कर्मचारियों के लिए संस्था के द्वारा सौंपे हुए काम ।
------- अपनी दुकान को देखना, खेत में कार्य करना, मजदूरी करना इत्यादि-अर्थात अपना व्यवसाय करना।
ये ही सब आपके नियत/निर्धारित कर्म हैं।
इसके अतिरिक्त, और उच्च स्तर पर- समाज को दिशा देना -समाज के शास्त्रों से।
इसी कारण कई स्थान पर गीता में कहा गया है की शास्त्र विहित कर्म कर।
ये भी स्पष्ट है कि आपको किसी अन्य के काम में हस्तक्षेप नहीं करना है।
यह तो आप सभी जानते हैं कि समाज भी हम सब के व्यक्तिगत और सामूहिक कार्यों/कर्मों से ही चलता है। पशु/ पक्षी भी अपने अपने कर्म करते हुए प्रकृति में अपना योगदान देते हैं।
सारांश यह है की आपको अपने विवेक से अपने काम समझने है, निर्धारित करने है और उन्हे करना है ; पूरी श्रद्धा व निष्ठा के साथ और बिना कर्म फल में आसक्ति रखें।
तभी आप समाज के एक responsible नागरिक कहे जाने लायक होंगे।
अब अर्जुन के संदर्भ में देखें कि उसका योद्धा का यह कर्म किस ने और कैसे नियत किया था; उसके जन्म ने, परिस्थितियों नें, समाज नें, इत्यादि ??
1. अर्जुन क्षत्रिय परिवार में जन्मे थे; और उन्हें बचपन से उसी प्रवृत्ति में पाला गया था -प्रवृत्ति अर्थात युद्ध, जीत, हार इत्यादि।
2. एक राजकुमार जो इसी दिशा में प्रशिक्षित हुआ है- उससे समाज भी क्या अपेक्षा करेगा।
3. अर्जुन की परिस्थिति-सारा जीवन कौरवों के हाथों अन्याय सहते हुए घोर कष्ट पाये और अब यह अवसर मिला है बदला लेने का या वीरगति पाने का।
अब यदि नियत समय पर एक व्यक्ति अपने नियत कर्म
से पीछे हटे (जैसे अर्जुन कर रहा था) तो निश्चित ही अराजकता फैलेगी । ।
आप सोच कर देखें की जब कभी आप को अपने कार्यस्थल पर या घर में या और कहीं डांट पड़ी है तो वह किसी न किसी नियत कर्म को न करने या ठीक से न करने के कारण ही पड़ी होगी। इसी कारण से ही आपने भी कई बार
औरों को डांटा होगा।
तो अपने कर्मों को पहचानें और उन्हे करने की कुशलता प्राप्त करें। ऐसे सभी कार्यों को कुशलता पूर्वक करें-बिना फल की आसक्ति के।
इस भाग में इतना ही। अगले भाग में कर्मों पर और चर्चा की जाएगी। साथ में कर्म किए जाने की प्रक्रिया भी discuss की जाएगी।
धन्यवाद।