पिछ्ले अर्थात छटे भाग को सुनने के बाद शायद आप ने अपने कर्मों/कर्तव्यों की समीक्षा की हो।
हो सकता है कि आप अपने सभी कर्मों को जानते हैं और उन्हे पूरी लगन के साथ कर रहे हैं? ।
ये तो हुई नियत कर्मों की चर्चा। इन के अतिरिक्त अपनी बुद्धि और विवेक से आप
अन्य कर्म भी नियत कर सकते हैं या कर्म बदल भी सकते हैं।
परंतु ध्यान रखें कि कर्म समाज के लिए लाभदायक हो और किसी भी सामाजिक/शास्त्रीय मानदंड पर गलत
नहीं है।
गीता में आत्म विकास,आध्यात्मिक और परोपकार के कार्यों पर बहुत focus है। ऐसे कर्म आप अपने लिए जोड़ सकते हैं ।
अब आगे समझते हैं कि हमारा शरीर कर्म कैसे करता है।
कर्म किए जाने की प्रक्रिया
कर्म क्यों किए जाते हैं ??
इस चर्चा में तो पहले भी कहा गया है कि प्रत्येक कर्म किसी न किसी कामना/इच्छा पूर्ति के लिए किया जाता है । यहाँ एक आवश्यक ध्यान दिला दिया जाये । हमारी सारी चर्चा सामान्य/सांसारिक व्यक्तियों के लिए है। यदि आप सामान्य व्यक्ति के स्थान पर एक साधक/भक्त हैं जो मोक्ष की तरफ बढ़ना चाहते हैं, तो गीता में, उस स्तर पर कहा गया है कि सब इच्छाओं/कामनाओं को त्यागना है ।
परंतु सामान्य व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है। इस स्तर पर मनुष्य/गृहस्थ किसी न किसी कामना से प्रत्येक कर्म करता है। उसके लिए इतना ही पर्याप्त है कि वह अपने उपयुक्त कार्य पूरी निष्ठा से करे और कर्म फल में आसक्ति न रखे।
तो अपना विषय continue करते हुए ----कामनाएँ/इच्छाएं हमारे मन से पैदा होती हैं और उसके इनपुट ज्ञानेन्द्रियों से मन में जाते हैं । मन में हमारी पहले की प्रवृत्तियाँ और अनुभवों की स्मृतियाँ; सभी स्टोर किए हुए हैं। यह कामना तुरंत अभी उत्पन्न हुई हो सकती है या पहले से मन में दबी हुई थी और अब उभर कर इच्छा बनी और फिर संकल्प ।
शरीर द्वारा कामना की प्रोसेसिंग की जाती है और
या तो कर्म किया जाता है या इस कामना के लिए कर्म नहीं किया जाता है (मन/बुद्धि के निर्णयानुसार)।
कर्म यदि किया जाता है तो कर्म से सुख प्राप्त होता है या दुख।
एक बहुत सरल उदाहरण:
आप किसी के घर मिलने गए -formally अर्थात किसी काम से । यहाँ आपकी कामना और इच्छा हैं कि
Host पर अच्छा इम्प्रैशन रहना ही चाहिए ताकि जिस काम के लिए आप गए हैं वह काम आगे बढ़ सके.
सामाजिक रीति के अनुसार वहाँ चाय serve की गयी। साथ में कुछ अन्य व्यंजन हैं जिनमें रसगुल्ला भी है। आप से लेने के लिए कहा गया।
ये चाय की offer आपके कानों (एक ज्ञानेन्द्रिय) से होती हुए आपके मन ने receive की ।
आपका मन react करता है कि ये तो समाज का एक ritual है , और चाय तो लेनी ही है। यहाँ कामना क्या है, समाज के प्रति आप भी अनुरूप दिखें। आपका मन/बुद्धि “हाँ’ कहने को approve करता हैं और मुंह (कर्मेन्द्रिय) के द्वारा हाँ कहा जाता है। –यह स्वीकृति एक कर्म है जो मुंह से बोल कर किया गया।
अब चाय पीने का कर्म कैसे किया जाता है; इंद्रियों द्वारा –आँख, हाथ और मुंह और जिव्हा द्वारा ।
इनमें जिव्हा ज्ञानेन्द्रिय है जो आपको स्वाद (इत्यादि) का ज्ञान देगी।
आपके मन में पिछले अनुभवों के आधार पर चाय के taste की स्मृतियाँ अंकित हैं कि कैसी चाय आपको अच्छी लगती है।
परंतु चाय कैसी भी लगे आप चाय बढ़िया ही कहेंगे –ये शिष्टाचार भी आपके मन/बुद्धि में अंकित है।
परंतु बात ये ही कि रसगुल्ला आपको बहुत पसंद है-अर्थात रसगुल्ले के स्वाद से आपको मोह है। (मोह राग से पहले के स्थिति है)।
जब मोह है तो निश्चित ही खाने की इच्छा मन में उठेगी। मन ने कुछ hesitate किया क्योंकि बुद्धि कह रही है कि शिष्टाचार में यहाँ केवल चाय ही ठीक है।
परंतु जब होस्ट ने एक और इशारा किया , मन ने बुद्धि को overrule किया और एक रसगुल्ला खाने का संकल्प
कर लिया। हाथ (कर्मेन्द्रिय) को आदेश दिया और रसगुल्ला आँख, हाथ, मुंह द्वारा खाया गया और जिव्हा ने स्वाद मन तक पहुंचाया “कि मज़ा आ गया” सुख प्राप्त हुआ।
क्योंकि सुख प्राप्त हुआ, मन में एक और खाने की इच्छा हुई –अभी केवल इच्छा ; परंतु अब बुद्धि ने बिलकुल मना कर दिया और यह इच्छा संकल्प नहीं बनी। अत: cycle समाप्त हो गया।
ये सब गतिविधियां पल पल में हो जाती हैं।
आज यहीं विराम देते हैं; ताकि आप पढ़ कर सोचें और अपने किसी सरल कर्म का ऐसे ही क्रम बनाएँ।
अगली बार इस स्थिति को आगे बढ़ाएँगे और continue...... करेंगे।
धन्यवाद
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