अभी तक के सरल गीता ज्ञान के तीन भागों में
श्लोक 2/47 की चर्चा गयी है। जिस का सारांश यह है कि:
प्रत्येक व्यक्ति को अपने निर्धारित कर्म , पूरे कौशल व क्षमता से करने हैं, कर्म सफल हो अर्थात परिणाम मिले ऐसी ही प्लानिंग हो और इसी भावना से कर्म किया जाये।
परंतु कर्म परिणाम/फल में आसक्ति न हो अर्थात आप उसके दास न बनें। फल मिला तो ठीक अन्यथा दुबारा या कुछ और प्रयत्न किया जाएगा।
इसके अतिरिक्त ‘अपने’ कर्म न करने का तो कोई विचार दूर दूर तक न आए।
कोई आलस्य /procrastination/निकम्मापन/बहाने बाजी नहीं।
जैसे अर्जुन युद्ध के मैदान में ‘अपने’ निर्धारित कर्म से पीछे हट रहा था।
श्लोक 2/48 क्या है, पढ़ते हैं;
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय |
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||४८ ||
अर्थात
हे अर्जुन! आसक्ति को त्याग कर समभाव में स्थित हो कर अपना कर्म करो |
सफलता और विफलता में सम भाव रखना भी योग का एक भाग है।
2/48 से पहले आसक्ति की चर्चा करनी आवश्यक है। आसक्ति के
साथ राग,और द्वेष पर भी प्रकाश डाला जाएगा क्योंकि ये सभी संबन्धित हैं। और इन
का प्रयोग गीता में बार बार किया गया है।
अपने जीवन में हम अनेक पदार्थों, क्रियाओं और व्यक्तियों इत्यादि से interact करते
हैं। interact मतलब इनके साथ तालमेल करके अपने कर्म करते हैं और जीवन आगे बढ़ते हैं।
‘पदार्थों, क्रियाओं और व्यक्तियों इत्यादि’ के लिए अब हम घटक या entity शब्द का प्रयोग करेंगे।
इन में से कुछ entity’s के साथ हमारे अनुभव अच्छे होते हैं अर्थात हमें ऐसा लगता है कि ये हमें सुख
–pleasure दे रहे हैं; -ऐसा लगता है पर ध्यान दीजिये, शायद वास्तव में ये सुख न हो।
कुछ के साथ के अनुभव में हमे लगता है कि हमें दुख –pain मिल रहा है। वास्तव में दुख है या नहीं अभी पता नहीं है।
जब अच्छे अनुभव repeat होते हैं तो ऐसे घटक - entity’s हमें अच्छे लगने लगते हैं।और हमें उनसे राग होने लगता है और हो जाता है।
यदि खराब अनुभव repeat होते हैं तो हमें उनसे घृणा होने लगती है और कई बार क्रोध/गुस्सा भी आता
है। ये ही आगे बढ़ कर द्वेष हो जाता है।
जैसे आपको कार्टून देखना अच्छा लगने लगा; आप भी बार बार देखते रहे –कि आप को राग हो गया कि कार्टून तो देखने ही हैं, चाहे कुछ भी हो जाए।
कभी कभी इस के लिए मोह शब्द भी प्रयोग किया जाता है जबकि दोनों में अंतर है। पर सामान्य भाषा में इन का interchangeably प्रयोग कर सकते है।
यदि आपको एक सब्जी का taste अच्छा नहीं लगता परंतु बार बार वह आपको दी जाती है , और हर बार आपको टेस्ट खराब ही लगता है, तो आपको उस से द्वेष हो जाएगा और आप देखते या सुनते ही द्वेष से भर जाएँगे।
ऐसी ही दोनों स्थितियाँ आपके कार्यकारी साथियों के लिए भी होती हैं-कुछ से interact करना अच्छा लगा आई और कुछ से खराब, ये ही राग द्वेष में बादल सकते हैं।
ये तो हुआ राग, द्वेष के बारे में।
अब कोई ऐसा घटक लीजिये जो अभी आपके पास हैं नहीं परंतु उसके मिलने /आने की संभावना है-अर्थात यह future की बात हो रही है। जैसे –आपने एक लॉटरी का टिकट खरीदा या आपको एक जॉब ऑफर होने वाली है, आपको सूचित कर दिया गया है कि आपका selection हो चुका है , बस हैड ऑफिस से approval आनी है।
तो लॉटरी का prize या job ऑफर एक आने वाला घटक है जो आपको अभी से बहुत सुख दे रहा है परंतु आप हैं कि दिन रात उसी के ख्वाबों में दिन बिता रहे हैं और अधीरता के साथ wait कर रहे हैं।
Finally जब आपका टिकट नहीं लगा तो आप पागल से हो गए। ऐसे ही, जॉब के केस में, last moment पर business down होने के कारण हैड ऑफिस ने सभी नए appointments को freeze कर दिया। (ये मेरे साथ हो चुका है)।
इस को आसक्ति कहा जाएगा। अर्थात किसी (प्राप्त होने वाली) वस्तु के प्रति अत्याधिक तीव्र लालसा/पाने की इच्छा रखना ही आसक्ति कहलाती है।
अब आप समझ सकते हैं कि 2/47 में
सफलता के लिए आसक्ति शब्द का प्रयोग क्यों किया गया है-क्योंकि किसी भी कर्म में सफलता भविष्य में मिलने वाली है –।
आशा है कि अब आप को राग, द्वेष, आसक्ति शब्दों का अर्थ स्पष्ट हो गया है। यदि नहीं तो कृपया बताएं।
इस बार इतना ही। अगली बार कर्म पर चर्चा के साथ श्लोक 2/48 पर भी आगे बढ़ा जाएगा।