पतंजलि योग सूत्र-प्रथम पाद
योग क्या और क्यों:
क्या : योग का अर्थ है चित्त की वृतियों का संयम/निरोध.
क्यों: चित्त की वृत्तियाँ - अर्थात व्यक्ति का मन thought waves के निरंतर आते रहने के कारण किसी एक ‘वस्तु/विषय’ पर स्थिर नहीं हो पाता है.
योग के ध्येय है कि मन को स्थिर करके अपने आत्म स्वरूप से मिलन.
ऐसा –अर्थात मन की अस्थिरता चित्त की वृत्तियों के कारण होता है।
वृत्तियाँ मुख्यत: 5 प्रकार की हैं –प्रत्येक वृत्ती या तो सकारात्मक हो सकती है या नकारात्मक।
वृत्तियों का वर्णन दिया गया है जिस से समझ कर वृत्तियों को निरंतर प्रयास और अभ्यास द्वारा आहिस्ता आहिस्ता संयम में लाया सकता है.
अभ्यास एवं वैराग्य के लिए :
· गहन विश्लेषण द्वारा सही और गलत में भेद;
· बुद्धि का सार-वास्तविकता को अंतर्ज्ञान से समझना.
· ‘मैं’ की समाप्ति पर:
o आनंद की प्राप्ति.
o वास्तविक स्वरुप का ज्ञान
तप , स्वाध्याय और ईश्वर को समर्पण भी इस (योग) को प्राप्त करने के तरीके हैं.
राग , भय और क्रोध से मुक्त होने से प्रगति बहुत तेज होती है.
इस क्रिया में विक्षेपों, विघ्नों व facilitators का भी वर्णन है.
प्राप्त होने वाले process परिणाम बताए गए हैं.
अंतत: (final stage) में पहुचने पर:
· बुद्धि अत्यंत स्वच्छ और निर्मल हो जाती है; वस्तुओं के असली स्वरूप को ग्रहण करती है;
· कर्माशय(अंत:करण) में संचित भटकने वाले संस्कारों से मुक्ति प्राप्त होती है; और व्यक्ति मुक्ति की ओर आगे बढ़ता है.
अध्याय 2 (समाधिपाद 2) में योग की ओर अग्रसर होने के तरीके बताए गए हैं।
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