क्या
आप मानते हैं कि गीता में कहा है : “कर्म करो और फल की इच्छा मत करो”
यदि हाँ, तो यह अवश्य पढ़ें।
यह बिलकुल गलत धारणा है।
सभी कर्म किसी न किसी परिणाम/फल के लिए किए जाते हैं। अर्थात फल की ‘इच्छा’ तो स्वाभाविक है।
तो - गीता में क्या कहा है –भगवान श्री कृष्ण ने ?
उन्होने चार बिन्दु कहे हैं: (श्लोक 2/47 और 2/48)
1. कर्म करना तो अनिवार्य है; कर्म न करने का कोई option-विकल्प नहीं है। कर्म पूरी निष्ठा और कुशलता से करने
हैं।
2. कर्म के फल में अपना अधिकार मत समझ।
(अर्थात ऐसा नहीं है की जिस फल के लिए तुम ये कर्म कर रहे हो , उसे प्राप्त करना तुम्हारा अधिकार हो गया। ऐसा हो तो, हर batsman हर बॉल में चौका ही लगाए और हर bowler हर बॉल में wicket उड़ा दे)।
3. कर्म की सफलता/असफलता में आसक्ति न रख ।
(अर्थात फल मिलने/न मिलने की अनिश्चितता में हर समय उलझे रहकर अपनी performance को कम न करें)।
4. सफलता या असफलता में समभाव रख।
(अर्थात सफलता पर ऐसा न हो कि तुम्हारे पैर जमीन पर ही न पड़ें; और असफलता में तुम depression में ही आ जाओ)।
यहाँ कहीं ये अर्थ नहीं निकलता है कि फल की ‘इच्छा’ मत कर।
यदि और समझना है तो आपको ‘आसक्ति’ और ‘समभाव’ को समझना होगा। शायद ‘कर्म’ को भी समझना होगा।
अगले लेख में आगे।
कृपया अपने विचार लिखें -चर्चा के रूप में। चर्चा से ही बिन्दु समझ में आते हैं। हाँ, परिणाम तो कुछ करने पर ही मिलते हैं।
यदि चाहें तो निसंकोच चर्चा के लिए फोन करें। (9811523559)
वीरेंद्र