ये स्वीकार करना होगा कि हम जैसे कई लोग उत्तर प्रदेश में ज़मीन पर जाकर भी सही मूड भांपने में नाकाम रहे. 403 सीटों में 303 सीटों पर जीत के साथ अगर लोकसभा चुनावों जैसा ही वोट प्रतिशत बीजेपी का आया है तो ये प्रचंड मोदी लहर के अलावा और कुछ नहीं . हालांकि जब चुनाव हो रहे थे तब इतनी सुनामी जैसी जीत की कल्पना भारतीय जनता पार्टी के तमाम कार्यकर्ताओं और प्रबल समर्थकों को भी नहीं थी . चुनाव कवरेज के दौरान मैंने लिखा था कि ज़मीन पर उतना ज़ोर नहीं है जितना मीडिया में दिख रहा है- यह आकलन अंततः गलत साबित हुआ लेकिन इसके कारणों के बारे में अब सोचते समय अपनी नज़र की चूक के साथ-साथ मेरा मानना यह है कि नए दौर का चालाक वोटर अब अपनी राय बात करते समय कुछ और रखता है और मतदान के समय कुछ और कदम उठाता है.
उत्तर प्रदेश की जीत किसी नीति या नारे से भी ज़्यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी के शानदार चुनाव प्रबंधन की है , मोदी के पर्सनालिटी कल्ट की है. मुख्यमंत्री के चेहरे के बिना मैदान में उतरी बीजेपी को कमज़ोर विपक्ष की बिखरी हुई , भोथरी चुनौती का फायदा भी मिला है. अगर देवबंद जैसी सीट से बीजेपी जीती है तो इसके निहितार्थ बहुत गहरे हैं. इस बार के चुनाव में सपा -बसपा की राजनीति के तोड़ के तौर पर बीजेपी ने ज़बरदस्त चौतरफा ध्रुवीकरण किया जिसका उन्हें फायदा मिला है ये साफ़ है. ऐसा लग रहा है कि सिर्फ सवर्णों ने ही नहीं, दलितों ने, मुसलमानों ने , जाटों ने दिल खोलकर मोदी के पक्ष में वोट दिया है.
लेकिन मोदी के नाम पर स्यापा करने के बजाय विपक्ष के खेमे के लिए ये ज़बरदस्त तौर पर अपने गिरेबान में झाँकने का वक़्त है. अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पारस पत्थर हैं तो क्या राहुल गाँधी पनौती हैं जो जिसके साथ लगते हैं उसका खेल ख़राब हो जाता है? राहुल गाँधी को अपने बारे में , प्रशांत किशोर जैसे हवा हवाई चुनाव मैनेजर के बारे में, अपने संगठन के बारे में, पार्टी की चुनावी रणनीति के बारे में बहुत संजीदगी से सोचने की ज़रुरत है.उसी तरह 2012 की प्रचंड जीत के बाद अब प्रचंड हार देखने वाले अखिलेश यादव के लिए अपनी पार्टी और अपने नेतृत्व को बचाने का संकट है. उन्हें घर बाहर सब जगह लानतें झेलने के लिए तैयार रहना होगा. सपा का यादव-मुस्लिम गठजोड़ का फार्मूला और मायावती का दलित-मुस्लिम दांव बुरी तरह फेल हुए हैं. मायावती के लिए तो अब अस्तित्व का ही संकट खड़ा हो गया है.
लेकिन ऐसा प्रचंड बहुमत किसी पार्टी और उसके समर्थकों के बेलगाम होने का खतरा भी साथ लाता है.बीजेपी की ये प्रचंड जीत एक नए हिंदुस्तान के उदय का संकेत है. ये जीत उत्तरप्रदेश और पूरे देश में समावेशी समाज की सोच के लिए क्या सामाजिक सन्देश और राजनैतिक कार्यक्रम लाती है , ये अभी देखना होगा. लेकिन 2019 की राह विपक्ष के लिए बहुत मुश्किल होने वाली है. क्योंकि अरविन्द केजरीवाल भी पंजाब और गोवा में कोई कमाल करने से चूक गए हैं.