अनवर मियाँ को भरोसा था कि एक न एक दिन उन्हें अलादीन का चिराग जरुर हासिल होगा। अपने भरोसे पर कायम अनवर मियाँ जिन्नों की बस्ती ढूँढ-ढूँढ कर थक चुके थे। ऐसा कोई कबाड़ का बाज़ार नहीं था जो उन्होंने इस चक्कर में छान न मारा हो। जिन्न मिला हो या न मिला हो परअनवर मियाँ ज़माने की खाक छानते छानते अनपढ़ होते हुए भी पढ़े तो नहीं थे पर कढ़े हुए जरूर हो गए थे। कोई भी कबाड़ी बाज़ार अनवर ने नहीं छोड़ा था, यहाँ तक कि मेरठ के कबाड़ी बाज़ार तक भी घूमकर आ चुके थे। मेरठ के कबाड़ी बाज़ार से लौटते हुए मियाँ पूरी तरह इत्र से महक रहे थे। चमेली के फूलों का गजरा अभी भी उनके बाएं हाथ की कलाई में लिपटा हुआ था। दो महीने की जमा कमाई एक झटके में उस चुड़ैल ने झटक ली थी जिसकी ख़ुमारी अब तक उनके सर पर सवार थी। पर चुड़ैल नहीं, मियाँ जी को तो जिन्न चाहिए था। यही बात उन्होंने जब उस चुड़ैल के प्रतिनिधि से कही थी तो उसका जबाब था कि पहले बताते कि आपको चुड़ैल नहीं बल्कि जिन्न पसंद हैं, इस बाज़ार में तो बहुत से जिन्न भी लाल रुमाल गले में बाँध कर घुमते रहते हैं। और तो और चुड़ैल के मुकाबिल बहुत ही किफायती भी हैं। पर उन्हें ये जिन्न वो सब कुछ दे नहीं सकते थे जो मुराद उनके मन में चिराग के जिन्न से पूरी हो सकती थी। लिहाज़ा बमुश्किल अपनी जान उस चुड़ैल के जिन्न से बचाकर भाग खड़े हुए। उनके कुर्ते की जेबें चुड़ैल की बदौलत अपनी जीभ निकालकर लटकी हुईं थीं। मियाँ ने अपनी जेबें देखें और फिर उस गजरे को सूँघकर खाली जेबों के दर्द को साँस खींचने के साथ ही पी गए। चुड़ैल की दी हुई बोतल भी ख़त्म हो चुकी थी।
अनवर मियाँ की पीठ अकड़ चुकी थी। आखिर फुटपाथ पर लेटे हुए और उम्मीद भी क्या की जा सकती थी। मियाँ उठे तो पीठ के टेढ़ेपन की वजह से माकूल तरीके से उठ न सके और पता नहीं क्यों किसी धक्के की मानिंद आगे की ओर जा गिरे। आगे उनको सँभालने के लिए बिलकुल करीने से सजी हुई मशहूर नाली थी। मशहूर इसलिए कि चौधरी के ठेके से निकलकर बहकते हुए लोगों को वर्षों से सिर्फ एक यही नाली ही संभालती आयी थी। नाली को धन्यवाद देते हुए मियाँ ने एक दुआ की और ये क्या उनकी दुआ करते ही नाली में कुछ चमक पड़ा था। फिर क्या था। मियाँ ने दोनों हाथों से उस चमकती हुई चीज़ को नाली से बिना उसकी इजाजत के ही एक झटके में निकाल ली। पहले तो वो चीज़ अटकी हुई थी जैसे नाली ने अपने दांतों के बीच में दबा रखी हो। उस चीज़ को निकालते हुए अनवर मियाँ ने सोचा था कि शर्तिया नाली के दांत टूट गए होंगे। लेकिन शुकून भी था कि अब वो चीज उनके हाथों की गिरफ्त में थी।
अनवर मियाँ को कुत्तों के भौंकने से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। जलील मियाँ के हाते के सामने लगे नगर पालिका के नल को खोलकर उन्हें बड़ा शुकून हुआ। उस नल से पानी का निकलना कोई साधारण घटना नहीं थी। पहले उन्होंने अपने काले मुंह को धोया और फिर अपने हाथों के साथ-साथ उस चीज को भी जिसे उन्होंने अभी-अभी नाली से निकाला था। धुलने के साथ ही वो चीज़ उन्हें समझ आ चुकी थी। उनका अंदाजा बिलकुल सही था। ये तो वही चीज थी जिसकी मियाँ को वर्षों से तलाश थी।
शेष अगले भाग में ..................