लखनऊ ब्यूरो-: याद कीजिये आजादी के बाद भारतीय राजनीति का वह दौर, जब राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजीव गांधी की सरकार से नाता तोडकर उनके खिलाफ बगावत का बिगुल बजा दिया था। उस समय बोफोर्स घोटाले को ही अपना सबसे बडा हथियार बनाकर उन्होंने राजीव गांधी की सरकार को उखाड फेंका था। उनके समर्थकों ने उस समय इन्हीं राजा के बारे में एक नारा लहराया था ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है।‘ लेकिन, सत्ता में आने के बाद यही राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह देश की तकदीर तो नहीं बदल सके, अपनी सियासी तदबीर से खुद अपनी तकदीर जरूर बदल ली।
दूसरी ओर, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी हैं, जो न खुद अपने को फकीर कहलाना पसंद करते हैं और न उनके समर्थक ही उन्हें लेकर ऐसा कोई नारा ही गाढना चाहते है। यही वजह है कि मोदी खुद को फकीर नहीं, डुग्गी पीटकर जन-जन का सेवक कहते हैं। लेकिन, इतना जरूर है कि अपने फकीरी अंदाज में इन्हीं नरेंद्र मोदी ने 2014 से लेकर 2017 के उत्तर प्रदेश विधान सभाई चुनाव तक अपना जादू बरकरार रखा है। इसी के चलते इस चुनाव में उनकी पार्टी को ऐतिहासिक विजय मिल सकी है। इतनी बेमिसाल कामयाबी तो 1991 में रामजन्मभूमि आंदोलन की प्रबल आंधी के बावजूद, भाजपा को नही मिल सकी थी। अटल और आडवाणी जैसे महारथियों के रहने के बावजूद, 1991 में भाजपा को 221, 1993 में 177, 1996 में 174 2002 में 66, 2007 में 51 और 2012 में सिर्फ 47 सीटें ही मिल सकी थीं। इस तरह आक्सीजन पर चल रही भाजपा इन्हीं नरेंद्र मोदी के जादुई करिश्में से उनकी चुनावी आंधी में उडकर आज फर्श से अर्श पर पहुंच गयी है।
इसका सीधा अर्थ यही कहा जा सकता है कि 2014 के लोकसभाई चुनाव के तीन साल के बाद भी प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का जादू आज भी उसी तरह बरकरार है। इसकी एकमात्र और सबसे खास वजह है उनका बेदाग चरित्र, पारदर्शी और फकीर जैसा सादा जीवन, राष्ट्र के प्रति उनकी अनन्य निष्ठा, प्रखर मेधा लोकहित में अथक-अनवरत श्रम करने की असाधारण क्षमता और सबका विकास-सबको साथ लेकर चलने की उनकी दृढ सकल्पशक्ति जैसी विशेषताएं। इसी के चलते इस एक अकेले शख्स ने इस चुनाव में समूचे विपक्ष को ढेर कर दिया है।बेशक, भाजपा की इस ऐतिहासिक सफलता में उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के भी योगदान को कम करके नहीं आंका जा सकता है। इस चुनाव में हर सीट पर अपनी पार्टी की विजय का लक्ष्य निर्धारित कर उन्होंने जिस साहसिक पहल से टिकटों का बंटवारा किया था, उसके लिये भाजपा के स्थानीय नेताओं ने बगावती तेवर अपना लिये थे। ऐसे में कुछ का कुछ हो सकता था। लेकिन, इसे बडी खूबसूरती से नजरंदाज करते हुए अमित शाह ने अपने रणनीतिक कौशल के बल पर स्थिति को बिगडने नहीं दिया।
अमित शह की कामयाबी की दूसरी खास वजह उनका गैरयादव दूसरी पिछडी जातियों को भाजपा के पाले में लाना रहा है। नतीजतन, एक मोटे अनुमान के अनुसार, भाजपा ने 57 प्रतिशत कुर्मी वोट, 63 प्रतिशत लोध वोट, और शेष गैरयादव वोटों में से लगभग 60 प्रतिशत वोट हासिल कर लिया है। इसके लिये उन्होंने अतिपिछडी जाति के केशव प्रसाद मौर्य की पहचान कर उन्हें भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के पद पर आसीन किया। यह उनका बडा अमोघ दांव साबित हुआ। इस चुनाव में केशव प्रसाद मौर्य ने अपना खून पसीना एक कर दिया। वह ज्यादा चुनावी जनसभाओं को करने की बजाय संगठन को ही पूरी तरह से मजबूत करने में जीजीन से जुटे रहे। इस बात का बखूबी एहसास अमित शाह के अलावा, स्वयं प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को भी हो सका है। इसलिये मुश्किल नहीं कि इनकी राजनीतिक सूझबूझ और जुझारूपन से प्रभावित ये दोनों ही इस बार पिछडी जाति के केशव प्रसाद मौर्य के सिर पर सूबे की सरकार के मुखिया का ताज रख दें। किसी पुरनिया को यह जिम्मेदारी सौंप दिये जाने पर उसे लाइन पर बनाये रखना इन दोनों के लिये ज्यादा सुखद और आसान नहीं होगा। इन्हें तो वह अपने मनमुताबिक ढाल सकते हैं। दूसरी बात यह कि केशव प्रसाद का स्वयं का जनाधार बहुत मजबूत है। इसके अलावा, इनकी संघर्षशीलता, साहसिकता और निर्णय ले सकने की अद्भुत क्षमता का दूसरी कोई नेता भाजपा में आसानी से नजर नहीं आ रहा है।
जहां तक मुख्य मंत्री अखिलेश यादव और उनकी पार्टी सपा के मिट्टी सूंघने का प्रश्न है, तो इसका सबसे बडा कारण अखिलेश यादव का दंभ, अपने पिता और सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव का सार्वजनिकतौर पर किया गया घोर अपमान, चुनिंदा भ्रष्ट नौकरशाहों पर रहमदिली, गायत्री प्रजापति जैसे मंत्रियों के बचाव में जीजीन से जुट जाना, मीडिया को हरदम कोसते रहना और यथासंभव उसका उत्पीडन करने जैसे दूसरे तमाम कारण रहे हैं। इसके साथ ही चुनाव के दौरान, इनके बोलने और काम करने में ज्यादातर इनकी नकारात्मकता ही झलकती रही है। अपने ‘सुशासन‘ के प्रचार के लिये जनता की गाढी कमाई के अरबों रु को पानी में बहा की तरह बहा देने के बाद भी वह सूबे के आम आदमी को अच्छा संदेश नहीं दे सके हैं। वह बुरी तरह संत्रस्त होकर कराहता ही रह गया।इस चुनाव में बसपा की हुई बेहद बुरी शिकस्त को लेकर उसकी सुप्रीमो मायावती द्वारा दी गयी सफाई को सुनकर लोगों को हंसी आती रही है। दरअसल, बसपा की पराजय का सबसे बडा कारण उसकी सरकारों में व्याप्त चरम भ्रष्टाचार रहा है । इसी के चलते उनके बंधुबांधव तथा उनसे बेहद करीबी से जुडे दूसरे अन्य लोगों की तो चांदी रही है। लेकिन, उनका अंधभक्त रहा दलित समुदाय अपनी किस्मत ठोंकता ही रह गया। मायावती ने इस तथ्य को पूरी तरह से नजरंदाज कर दिया था कि कांशीराम ने इसी दलित समुदाय को बसपा से जोडने के लिये कितनी मशक्कत की थी। वह उनके साथ उठते-बैठते, खाते-पीते और उनकी झोपडी में जाकर रहते तक थे। लेकिन, मायावती ने इस समुदाय को अपनी छाया तक छूने की कभी इजाजत नहीं दी थी। इसलिये इस समुदाय ने भी इस चुनाव में उन्हें बडा करारा सबक दिया है। लिहाजा, अब मायावती और उनकी बसपा के भी इतिहास बन जाने के ही आसार बनते नजर आ रहे हैं।
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