मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहहु काह बिस्वासा।।७/४५/३
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श्रीरामचरितमानस के उत्तरकांड में श्रीरामजी अपनी प्रजा के सम्मुख जो अपने विचार रख रहे हैं उनमें यह एक चौपाई बड़ी मार्मिक और गूढ़ है। प्रायः हम अपने आप को रामभक्त मान इतराते हैं और यह भी मानने का दावा करते हैं की श्रीरामजी की हम पर अनन्य कृपा है। सो यह तो बड़ी अच्छी बात है लेकिन यह सब कथनी में है करनी में तो वस्तुतः बड़ा भेद है। इसी ओर रामजी इशारा करते हैं। दरअसल सांसारिक व्यवहार में हम इतने आकण्ठ डूबे रहते हैं कि हमें पता ही नहीं होता कि हम क्या कहते हैं और क्या आचरण प्रत्यक्ष करते हैं। हमारा पूर्ण समर्पण श्री राम चरणों में होता ही नहीं हैं। हम तो केवल मुँह दिखाई करते हैं। थोड़ा सा लाभ दिखने पर हम किसी के भी आगे दंडवत हो जाते हैं। हमें लगता है ये आदमी हमारे काम का है तो बस हमारी परिक्रमा उसके आगे पीछे शुरू हो जाती है। कई बार तो स्थिति यह होती है कि व्यक्ति उच्च प्रशासनिक ओहदे में है,सामाजिक रूप से नामी-गिरामी है, आर्थिक रूप में अत्यंत श्रेष्ठ है या जोड़-तोड़ में अव्वल हे तो हम उसके इतने मुरीद रहते हैं इतने पलक-पावंडे बिछा उसका अभिनन्दन करने को व्यग्र रहते हैं की पूछो मत। और ये प्रक्रिया हमारे मस्तिष्क में हर समय चलती रहती है। हमें तत्काल में कोई काम उससे न भी हो तो भी हम उससे हर समय डरे,सहमे रहते हैं। उसके आगे उसका प्रिय बनने के लाखों जतन जाने-अनजाने करते रहते हैं। बस इसी कामना से कि वो हमसे रुष्ट न हो जाए। हमारी कही किसी बात को अन्यथा न ले ले। श्रीरामजी जो सबके कारण हेतु हैं उन पर हमारी नज़र जाती ही नहीं है। "चलो छोड़ो सबको,अपने राम को मनाएं "ऐसा भाव कहाँ कितनी बार हमारी कठिनाईओं मुश्किलों दुःख,तखलीफ में आता है?वैसे ऐसा नहीं है कि हम ख़राब समय में ईश्वर का स्मरण नहीं करते हैं। खूब करते हैं। धुप,दीप,मेवा,मिष्ठान,माला,जप,यज्ञ क्या नहीं करते हैं। उसे भी बड़े-बड़े प्रलोभन देते हैं मानो हम न देंगे तो उसका गुज़ारा ही नहीं हो पायेगा। लेकिन वो चाहता है जो,वो कहाँ दे पाते हैं। अपना मन कहाँ दे पाते हैं उसे। खाली नाटक जितने चाहे करा लो। कभी-कभी तो पराकाष्ठा होती है कि हम उसको अपना मनोवांछित कार्य सौंप कर भी उसको सहूलियत करने का भी इंतजाम करने लगते हैं मसलन हमारा नॉकरी में ट्रांसफर हो रहा है तो उसमे भी एक दो या तीन विकल्प रख देते हैं। प्रभु अच्छा यहाँ नहीं तो वहां करवा देना और वहां भी नहीं तो ये तीसरे विकल्प में तो कर ही देना।मानो सारे जहाँ का कार्यपालक अब इतना तुच्छ हो गया कि उसे भी स्पेस चाहिए,सहुलियत चाहिए। पहले तो क्या वो अपने भक्त को इधर-उधर दौड़ाएगा?और अगर दौड़ाएगा तो इसमें भी भक्त का हित ही तय होगा। तो हम उस पर ही क्यों नहीं सब छोड़ देते। चलो ये नहीं तो सर्वशक्तिमान मानते हुए एक स्थान विशेष का आग्रह/दुराग्रह (जो भी हो)क्यों नहीं कर लेते। अगर उसने हमें सुधारने की ही ठानी है तो क्या लखनऊ क्या काशी?सबहीं भूमि गोपाल की। ज़र्रा-ज़र्रा उसका पत्ता-पत्ता उसका। एक छन में तो हमारे सारे सारे संकल्प-विकल्प वो भुला सकता है। " करहिं विरंचि प्रभु,अजहिं मसक से हीन'तो जब ऐसे परम पुरुषोत्तम की बाहं थाम ली तो फिर संशय कैसा। दूसरे किसी व्यक्ति की शरण का क्या ओचित्य?वो भला हमारे कितने और किस-किस प्रश्नों का समाधान दे सकता है भला। अंततः शरण तो उस करुणा सागर पर ही जा कर ठौर पायेगी। वो ही हमारे प्रश्नों का सटीक समाधान दे सकता है क्योंकि उन प्रश्नों को रचा भी तो उसने ही है ,हमारे लिए। और जब रामजी स्वयं मूर्छा से जगा रहे हों ,याद दिला रहे हों कि भक्त तुम मुझे अपना मानते हो तो फिर अन्य के आश्रित क्यों होते हो?उठो, जागो,चेतन हो और अपने मेरे संबंधों को पहचानो तो विलम्ब किस बात का करें?तो भक्त तो बहुत कहला चुके उनका। अब उनका एक कहना भी मान कर चल पडें दो कदम इस संसार सागर में तो यह भवसागर गऊ के खुर जितना ही छोटा हो जायेगा। जय श्री राम।