कभी तो तुम भी आ जाओ गली मेरी, मैंने तो ज़िंदगी तेरी गली में गुज़ारी है. चाह कर तुझको ना चाहा खुद को भी, तुम में ना जाने क्यों इतनी ख़ुदपरस्ती है. ख़िलाफ़े दस्तूर गर मेरी ये मुहब्बत है, मिज़ाज़ तेरा ख़िलाफ़े तहज़ीब ही तो है. (आलिम)
फ़लसफ़ा-ए - मुहब्बत में मज़हब नहीं होता, खुदा तो होता है, पर कारोबार नहीं होता. नाम ले के खुदा का जो फैलाते है नफ़रत,खुद उनका घर कभी आबाद नहीं होता. (आलिम)