विजयनगर राज्य का अपने पड़ोसी राज्य से मनमुटाव चल रहा था। तेनाली राम के विरोधियों को तेनाली राम के खिलाफ राजा कृष्णदेव राय को भड़काने का यह बड़ा ही सुन्दर अवसर जान पड़ा।
एक दिन राजा कृष्णदेव राय अपने बगीचे में अकेले बैठे पड़ोसी राज्य की समस्या के बारे में ही सोच रहे थे कि तभी एक दरबारी उनके पास पहुंचा और बड़ी होशियारी से इधर उधर झांकता हुआ राजा के कान के पास मुंह ले जाकर बोला, ‘‘महाराज, कुछ सुना आपने ?’’
‘‘नहीं तो..क्या हुआ ?’’ राजा चौंके।
‘‘महाराज, क्षमा करें। पहले जान बख्श देने का वचन दें तो कुछ कहूं।’’
‘‘जो भी कहना हो, निस्संकोच कहो, डरने की कोई बात नहीं है।’’ राजा ने दरबारी को अभय दान देते हुए कहा।
‘‘महाराज, तेनाली राम पड़ोसी राजा से मिले हुए हैं। वे हमारे पड़ोसी राजा के साथ हमारे सम्बन्ध बिगाड़ना चाहते हैं।’’
‘‘क्या बकते हो ?’’ राजा गरज कर बोले।
मैं तो पहले ही समझ गया था महाराज। तेनाली राम ने आप के ऊपर ऐसा जादू किया हुआ है कि आप उसकी शिकायत सुन ही नहीं सकते, या यूं कहिए कि तेनाली राम की शिकायत आपके कानों को सहन नहीं होती।’’
‘‘तेनाली राम राज्य का सच्चा वफादार है। वह कभी राजद्रोह नहीं कर सकता। तुम्हें कहीं से अवश्य ही गलत सूचना मिली है।’’ राजा कृष्णदेव राय ने उस दरबारी से कहा।
‘‘महाराज, आपको जितना विश्वास तेनाली राम की सच्चाई पर है, उससे कहीं अधिक विश्वास मुझे अपनी इस सूचना पर है। पूरी तरह जांच व परख करके ही मैंने आप तक यह सूचना पहुंचाई।’’
जब उस दरबारी ने खूब जोर देकर अपनी बात कही तो राजा को सोचने पर मजबूर होना पड़ा।
राजा ने कहा, ‘‘ठीक है। मैं इस बात की जांच करूंगा और अगर तेनाली राम दोषी पाया गया तो उसे अवश्य ही कठोर दण्ड दिया जाएगा।’’
राजा की इस बात से प्रसन्न होकर दरबारी अपने घर चला गया।
दूसरे दिन कृष्णदेव राय ने तेनाली राम को एकान्त में बुलवाया और बोले, ‘‘तेनाली राम, हमें सूचना मिली है कि तुम हमारे शत्रु राजा से मिलकर हमारे विजयनगर राज्य को दूसरे के अधीन कराना चाहते हो ?’’
तेनाली राम ने जब अपने ऊपर लगाया गया यह आरोप सुना तो वह सिर से पैर तक कांप गया। वह राजा को इस बात का क्या उत्तर दे, उसे एकाएक यह भी सुझाई नहीं पड़ रहा था।
राजा ने जब तेनाली राम को चुप देखा तो वह क्रोध से भभक उठे और बोले, ‘‘तो तुम्हारे चुप रहने का यही अर्थ लगाया जाए कि तुम अपना अपराध स्वीकार करते हो ?’’
यह सुनकर तेनाली राम की आंखों में आंसू आ गए। वह बोला, ‘‘महाराज की बात काटने का साहस न तो मैंने अब तक किया है और न ही कभी भविष्य में कर सकूंगा।’’
राजा तो क्रोध से भरे हुए थे। तेनाली राम के इस उत्तर से वे और भी भड़क उठे। बोले, ‘‘तुमने जिस पड़ोसी राजा से सांठ-गांठ की है अब उसी के राज्य में जाकर रहो, मेरा राज्य कल ही छोड़ दो।’’
‘‘इतने बड़े अपराध की इतना मामूली सजा ?’’ तेनाली राम ने राजा से कहा।
‘‘तुम्हारी अब तक की सेवा को देखते हुए, मेरे तुम्हारे मित्रतापूर्ण सम्बन्धों को देखते हुए तथा तुम्हारे पद की गरिमा को देखते हुए मैं तुम्हें इतना ही दण्ड देना उचित समझता हूं। यदि कहीं अपराध किसी और ने किया होता तो मैं उसकी बोटी-बोटी नुचवा लेता।’’ राजा ने क्रोध में बिफरते हुए कहा।
तेनाली राम ने राजा का फैसला सुना और अपनी सफाई में एक भी शब्द नहीं कहा। बेचारा चुपचाप सिर झुकाकर राजा के सामने से चला गया।
दूसरे दिन जब तेनाली राम के विरोधियों ने यह सुना कि तेनाली राम राज्य छोड़कर चला गया है तो उनकी खुशी की सीमा न रही। वह सब राजा पर अपना प्रभाव बढ़ाने के उपाय सोचने लगे और अपनी पदोन्नति के मंसूबे बांधने लगे।
तेनाली राम विजयनगर राज्य के शत्रु राज्य की राजधानी पहुंचा और वहां के राजा से मिला। उसने उस राजा के गुणों का वर्णन छन्दबद्ध करके उसे सुनाया।
राजा अपनी प्रशंसा सुनकर खुशी से झूम उठा। उसने तेनाली राम से उसका परिचय पूछा।
तेनाली राम ने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘मैं विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय का निजी सचिव तेनाली राम हूं।’’
उस राजा ने तेनाली राम की बहुत प्रशंसा पहले ही सुन रखी थी लेकिन तेनाली राम से भेंट का यह पहला अवसर था। उस राजा ने तेनाली राम का भरपूर स्वागत किया।
तेनाली राम ने इस स्वागत के लिए राजा को धन्यवाद दिया।
राजा बोला, ‘‘तेनाली राम, राजा कृष्णदेव राय हमें अपना शत्रु मानते हैं, फिर भी तुम हमारे दरबार में निडर होकर कैसे चले आए ? तुम तो राजा कृष्णदेव राय के निजी सचिव हो। यहां शत्रु के राज्य में तुम्हारा कोई भी अनिष्ट हो सकता है ?’’
राजा ने हालांकि सच कहा था। फिर भी तेनाली राम ने मुस्करा कर कहा, ‘‘राजन् ! आप विद्वान हैं, आपके पास अपार शक्ति है। आप सुयोग्य प्रशासक हैं और प्रजा की भलाई चाहने वाले हैं। बिल्कुल ऐसे ही गुण हमारे महाराज में भी हैं। वे आपको अपना शत्रु नहीं, मित्र मानते हैं। आपकी इसी भ्रान्ति के निवारण के लिए महाराज ने मुझे आपके पास भेजा है।’’
‘‘हैं ! महाराज हमारे दुश्मन नहीं, दोस्त हैं।’ आश्चर्य से चौंकता हुआ राजा बोला, ‘‘लेकिन हमारे जासूसों ने तो हमें यह खबर दी थी कि राजा कृष्णदेव राय हमारे राज्य पर हमला करने की तैयारी कर रहे हैं।’’
‘‘हां राजन, हमारे गुप्तचरों ने हमारे महाराज से यही बात आपके लिए भी कही थी। तभी हमारे महाराज ने मुझे आपके पास भेजा है। युद्ध कभी किसी के लिए लाभकारी हुआ है, जो आप जैसे दो विद्वान् राजाओं को लाभकारी होगा ?’’ तेनाली राम ने कहा।
उस राजा पर तेनाली राम की बातों का असर हुआ। वह बोला, ‘‘लड़ाई तो मैं भी नहीं चाहता लेकिन यह बात साबित कैसे हो कि राजा कृष्णदेव राय सच्चे दिल से सुलह के इच्छुक हैं ?’’
‘‘आप कल ही कुछ उपहार व सन्धि पत्र देकर अपना एक दूत विजयनगर भेज दें। उस दूत को मैं भी अपना एक पत्र दूंगा। यदि महाराज कृष्णदेव राय आपका उपहार स्वीकार कर लें तो मित्रता समझी जाए और यदि वे उपहार लौटा दें तो आप मुझे जो चाहें दण्ड दे दें।’’
‘‘लेकिन यह तो मेरी तरफ से सुलह का पैगाम हुआ। यह तो मेरी हेठी मानी जाएगी।’’ राजा ने कहा।
‘‘लेकिन सन्धि प्रस्ताव लेकर तो मैं स्वयं आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूं। पहल तो हमारे राज्य की ओर से है।’’
राजा की समझ में यह बात आ गई।
उसने दूसरे ही दिन अपना एक विशेष दूत कुछ उपहार साथ देकर विजयनगर भेज दिया।
उधर राजा कृष्णदेव राय को भी यह पता चल चुका था कि तेनाली राम बेकसूर था। उसके विरुद्ध दरबारियों ने आपस में मिलकर झूठी चाल चली थी।
इधर जैसे ही शत्रु राजा का दूत बहुमूल्य उपहार लेकर राजा कृष्णदेव राय के पास पहुंचा तो राजा प्रसन्नता से भर उठे।
उन्होंने मन ही मन तेनाली राम की बुद्धिमानी की प्रशंसा की और उस दूत के साथ ही, अपना मंत्री भी उस राजा के लिए उपहार देकर भेज दिया। राजा कृष्णदेव राय ने अपना एक विशेष पत्र भी उस राजा के नाम लिखा कि तेनाली राम को तुरन्त वापस भेज दिया जाए।
और जब तेनाली राम वापस विजयनगर पहुंचा तो राजा कृष्णदेव राय ने उसका विशेष स्वागत किया और उसे ढेरों पुरस्कार दिए।
जिन दरबारियों ने तेनाली राम के विरुद्ध षड्यंत्र रचा था, वे दरबारी शर्म से पानी-पानी हो गए।