ए दिल है मुश्किल रिलीज ना होने देने की देशभक्ति जब बॉलीवुड को डरा रही है और ये सवाल जायज लग रहा है कि पाकिस्तानी कलाकारो को बालीवुड क्यों आने दिया जाये। जबकि पाकिस्तान आतंक की जननी है तो अगला सवाल हर जहन में आना चाहिये कि क्या वाकई भारत सरकार का भी यही रुख है। यानी जो राजनीति क देशभक्ति पाकिस्तानी आंतक को लेकर सडक पर हंगामा कर रही है उस राजनीतिक देशभक्ति तले बारत सरकार का रुख है क्या। तो देश का सच यही है कि प्रधानमंत्री मोदी चाहे ब्रिक्स में पाकिस्तान को आतंक की जननी कहें और सरहद से लगातार सीजफायर तोड़े जाने से लेकर तनाव की खबर आती रहें। इस दौर सरहद पर सारी हालात जस के तस है यानी पुराने हालात सरीखे ही। मसलन, वाघा बार्डर पर अटारी के रास्ते, उरी में अमन सेतू के रास्ते और पूंछ रावलाकोट के चकन-द-बाग के रास्ते बीते 100 दिनों में ढाई हजार से ज्यादा पाकिस्तानी ट्रक भारत की सीमा में घुसे। इसी दौर में समझौता एक्सप्रेस से तीन हजार से ज्यादा पाकिस्तानी बाकायदा वीसा लेकर भारत आये ।
तो सदा-ए-सरहद यानी दिल्ली -लाहौर के बीच चलने वाली बस से दो सौ ज्यादा पाकिस्तानी उन्हीं 100 दिनो में भारत आये जब से आतंकी बुरहान वानी के एनकाउंटर के बाद से घाटी थमी हुई है। इतना ही 21 दिन पहले 28-29 सितंबर की जिस रात सर्जिकल अटैक हुआ और सेना की तरफ से बकायदा ये कहा गया कि उरी हमले का बदला ले लिया गया है। 29 सितंबर को दिल्ली में जिस वक्त ये जानकारी दी जा रही थी उस वक्त उरी में ही अमन सेतु से पाकिस्तान के 13 ट्रक भारत में घुस रहे थे। भारत के भी 26 ट्रक 29 सितंबर को अमन सेतू के जरीये ही पाकिस्तान पहुंचे। यानी सरकार का कोई रुख पाकिस्तान के खिलाफ देशभक्ति की उस हुकांर को लेकर नहीं उभरा जो मुंबई की सड़क पर उभर रहा है।
जबकि ढाई हजार ट्रको के आने से लाभ पाकिस्तान के 303 रजिस्टर्ड व्यापार ियो को हुआ। वीजा लेकर भारत पहुंचे सैकडों पाकिस्तानी ने भारत के अस्पतालों में इलाज कराया और इसी दौर में पाकिस्तान के गुजरांवाला से 86 बरस के मोहम्मद हुयैन भी विभाजन में बंटे अपने परिवार से मिलने 70 बरस बाद पहुंचे और 1947 के बाद पहली बार राजौरी में अपने बंट चुके परिजनों से निलने नाजिर हुसैन पहुंचे। यानी सरहद पर जिन्दगी उसी रफ्तर से चल रही है जैसे सर्जिकल अटैक से पहले थी या उरी में सेना के हेडक्वाटर पर हमले पहले सी थी। इससे इतर दिल्ली मुंबई की सडकों से लेकर राजनेताओं की जुबां और टेलीविजन स्क्रीन पर देशभक्ति सिलवर स्क्रीन से कही ज्यादा सिनेमाई हो चली है।
अगला सवाल ये भी है कि क्या राजनीति करते हुये मौजूदा वक्त में सिस्टम को ही राजनीति हडप रही है या फिर अभिवयक्ति की स्वतंत्रता भी राजनीतिक ताकत की इच्छाशक्ति तले जा सिमटी है। ये सवाल इसलिये क्योकि याद कीजिये, आजादी के बाद आर्थिक संघर्ष से जुझते भारत की राजनीति जब दुनिया के सामने लडखडा रही थी तब भारत की स्वर्णिम संस्कृति-सभ्यता को सिनेमा ने ही दुनिया के सामने परोसा। खासकर मनोज कुमार की फिल्म पूरब और पश्चिम फिल्म में। नेहरु के समाजवादी नजरिए से जब समाज में हताशा पनपी तो वामपंथी हो या तब के जनसंघी जो बात राजनीतिक तौर पर ना कह पाये उसे गुरुदत्त ने अपनी प्याजा में, ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है ,गीत के जरीये कह दी,। और तो और 9/11 घटना के बाद जब दुनिया सम्यताओं के संघर्ष में उलझा।
अमेरिकी और यूरोपिय समाज में मुस्लिमो को लेकर उलझन पैदा हुई तो बालीवुड की फिल्म ने माई नेम इज खान में इस डॉयलग ने ही अमेरिकी समाज तक को राह दिखायी , माई नेम इज खान ष एंड आईिेएम नाट ए टैरर्रिजस्ट । इतना ही नहीं याद कीजिये फिल्म बंजरगी भाईजान का आखिरी दृश्य । पाकिस्तान के साथ खट्टे रिश्तों के बीच फिल्म के जरीये ही एलओसी की लकीर सिल्वर स्क्रीन पर बर्लिन की दिवार की तरह गिरती दिखी। और फिल्म हैदर के जरीये तो आंतक में उल्झे कश्मीर के पीछे की तार तार होती सियासी बिसात को जिस तरह सिल्वर स्क्रीन पर उकेरा गया। उससे सवाल तो यही उभरे कि सिनेमा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तले उन मुद्दो को उभारने की ताकत रखता है जिसपर राजनीति अकसर खुद उलझ जाती है या जनता को उलझा देती है । तो क्या अभिव्यक्ति के सश्कत और लोकप्रिय माद्यम पर हमला राजनीति साधने का नया नजरिया है।
वैसे राजनीति का ये हंगामा नया नही है, याद किजिये तो मराठी मानुष की थ्योरी तले एमएनएस ने एक वक्त अमिताभ बच्चन को भी निशाने पर लिया। हिन्दुत्व के राग तले शाहरुख खान को भी निशाने पर लिया था। यानी राजनीति साधने या राजनीतिक तौर पर लोकप्रिय होने की सियासत कोई नई नहीं है । लेकिन पहली बार बालीवुड को राष्ट्रवाद और देशभक्ति का पाठ जब राजनीतिक सत्ता ने पढाना शुरु किया। बकायदा रक्षा मंत्री पार्रिकर ने एक समारोह में अपने समर्थकों से कहा कि जो भी 'देश' के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाए उसे बिल्कुल उसी तरह सबक़ सिखाने की ज़रूरत है जिस तरह उन्होंने देश केएक प्रसिद्ध अभिनेता को सिखाया.हालांकि उन्होंने आमिर ख़ान का नाम नहीं लिया था लेकिन उनका इशारा आमिर की ही तरफ़ था. यानी झटके में सत्ता के रुख ने विरोध के उन आधारो को मजबूती दे दी जो आधार राजनीति साधते हुये खुद को लाइम लाइट में लाने के लिये बालीवुड विरोध को हथियार बनाते रहे।
यानी एक वक्त आमिक खान की अभिव्यक्ति पर राजनीतिक देशभक्ति भारी हुई तो उनकी फिल्म दंगल के रीलिज होने को लेकर सवाल उठे । और अब करण जौहर की पिल्म में पाकिस्तानी कलाकार है तो रीलिज ना होने देने के लिये राजनीतिक देशभक्ति सडक पर है। तो मुश्किल ये धमकी नही है । मुश्किल तो ये है कि अंधेरे गली में जाती राजनीतिक देशभक्ति धीरे धीरे हर संवैधानिक संस्धान को भी खत्म करेगी । और देश में कानून के राज की जगह राजनीतिक राज ही देशभक्ति के नाम अंधेरेगर्दी ज्यादा मचायेगा ।