यक़ीन कीजिए नौजी बाई ने शुक्रवार की सुबह चार बजे जब हमेशा के लिए अपनी आँखें बंद कीं तो पति जगदीश उसके पास ही था. रात आँखों में काटी थी और पूरी तरह इस छूटते हुए साथ के लिए तैयार था. लेकिन बीच-बीच में उसका हाथ जेब में पड़े ढाई-सौ रुपयों को टटोल लेता था. कुछ पैसे होने का एहसास किसी विपदा में कुछ भी न होने से ज़्यादा तकलीफ़ देता है.
थोड़ा उजाला हुआ तो भील बिरादरी के कुछ लोगों ने उन्हें नगर पार्षद के पास जाने की राय दी. सबको उम्मीद थी कि बस आने-जाने में जितना समय लगेगा, उसकी ही दरकार है बाकी तो पार्षद जी सुनते ही अंतिम संस्कार की व्यवस्था कर देंगे. जगदीश अपने भाई शंकर के साथ रतनगढ़ की नगर परिषद के आफ़िस पहुँचा. नगर परिषद के अध्यक्ष श्री प्रकाश मूंदड़ा ने गुहार सुनी और एक चालाक नेता की तरह मदद के बजाय एक सलाह देकर अपना पल्ला झाड़ लिया की जाओ और अपने भील बिरादरी के पार्षद नाथू लाल से मदद माँगो.
नाथू लाल से सम्पर्क नहीं हो सका. समय गुज़र रहा था. इसी बीच कहते हैं की नगर परिषद के आफ़िस में ही किसी कर्मचारी ने जगदीश को ये राय भी दे डाली कि अगर अंतिम संस्कार के लिए ढाई-तीन हज़ार की व्यवस्था में दर-दर भटकने से तो अच्छा है की पत्नी की टाँग पकड़कर नदी में फेंक दो. बिना किसी वायवस्था के वापिसी का रास्ता जगदीश ने कैसे कटा इसका अकेला गवाह खुद जगदीश था जो सोच रहा था कि कितने सौभाग्यशाली होते हैं वो, जो लावारिस मार जाते हैं. कम से कम उन्हें किसी से उम्मीद तो नहीं होती. उम्मीदें ज़्यादा तकलीफ़ देती हैं.
टूटी हुई उम्मीद को एक राह और दिखाई दी. किसी के कहने पर दोनो भाई मुक्ति धाम समिति के अध्यक्ष लक्ष्मी लाल जैन के पास भी गये लेकिन उन्होने केवल इन शब्दों में मदद की पेशकश रक्खी क़ी "ढाई हज़ार रुपये जमा कर दो और लकड़ियाँ ले जाओ". जगदीश उनके मुखश्री से निकालने वाले शब्दों के बजाय ये सोच रहा था कि अगर उसके पास ढाई हज़ार रुपये होते तो ये दिन ही क्यों आता. वो अस्पताल से नौजी की द्वा करा लेता.
कई घंटे बर्बाद करके दोनो भाई नौजी बाई के पार्थिव शरीर के पास लौट आय. फ़ैसला किया की नौजी को गड्ढा खोद के गाड़ दिया जाय. इस काम में शारीरिक परिश्रम के अलावा कोई खर्च नहीं था. जगदीश को इस फ़ैसले ने कितनी राहत बख़्शी, इसका भी गवाह केवल जगदीश है.
ज़्यादा सोच-विचार का समय नहीं बचा था. अगले ही पल गेती और फावड़े और नौजी को कंधों पर लिए शमशान की तरफ बढ़ चले. लेकिन राजा हरीशचंद्र जैसों का भी इंतेहाँ लेने वाला अभी नाटक ख़त्म नहीं करना चाहता था. रास्ते में इन्हें एक कार्यकर्ता 'पिंटू बना' मिले, देखते ही पूछा कि अंतिम संस्कार में ये गेती-फावड़े लेकर क्यों जा रहे हो? जगदीश ने जल्दी-जल्दी अपनी आप-बीती सुनाई तो 'पिंटू बना' ने लाश को गाड़ने का विरोध किया और अपने कुछ साथियों को भी बुला लिया.
12 घंटे से ऊपर हो चुके थे. जगदीश की परीक्षा समाप्त होने का नाम नहीं ले रही थी. बारिश भी शुरू हो चुकी थी. शमशान घाट जाने वाले रास्ते पर भी पिछले 20-22 दिन से पानी भरा हुआ था. ऐसे में शमशान से पहले ही, एक पगडंडी के किनारे, संस्कार का निर्णय ले लिया गया. सबके सामने बस एक ही फ़िक्र थी कि कैसे भी हो लाश को आग के हवाले कर दो. आस-पास जो भी ज्वलनशील लगा ले आया गया. कुछ घास-फूस, बहकर आया कचरा, कुछ पुराने टायर, पोलिथीन, एक दो मोटे लकड़ी के तने.
नौजी अपनी अंतिम यात्रा की सेज पर थी.
मैं सोच रहा हूँ कि ऐसे मौके पर अगर इलाक़े में स्वच्छता अभियान के किसी कार्यकर्ता को खबर दे दी जाती तो कूड़ा ख़त्म करने का ये नायाब तरीका उनमें नया उत्साह भर सकता था. लेकिन जगदीश के पास कुछ सोचने का समय ही कहाँ था. फिर इस भील बिरादरी से कोई सोचने की उम्मीद भी तो नहीं करता.
हाँ, अब जबकि ये खबर फैल चुकी है, ग़रीब और अति-ग़रीब लोगों के लिए ये कूड़ा-करकट एक वरदान साबित हो सकता है. क्योंकि उनमें और इसमें कोई विशेष अंतर भी नहीं है. और लिखने वाले ये भी लिख सकते हैं कि जीवन भर गंदगी का पर्याय बने हुए लोग अगर जाते-जाते कुछ कूड़ा अपने साथ ले जायें तो देश के लिए उनका कम से कम एक योगदान तो होगा.
जगदीश की ही तरह अभी कुछ दिन पहले, छत्तीसगढ़ में भी एक ग़रीब व्यक्ति को जब अपनी पत्नी का शव, अस्पताल से घर ले जाने के लिए किसी व्यवस्था का इंतेज़ाम नहीं हो सका तो वो उसे अपने कंधे पर डाल कर कई किलोमीटर पैदल ही चल पड़ा. उसका हौसला बढ़ने के लिए उसकी बेटी साथ-साथ चल रही थी. अपना बोझ खुद उठाने की क्षमता स्वालंबन का प्रमाण है. इंडिया का पता नहीं, भारत हमेशा से यूँही था.
ये घटनायें शर्मनाक नहीं हैं. इन्हें शर्मनाक कहकर अपने बेहिस होने पर आख़िरी मोहर मत लगाइए. ये घटनायें बाज़ारवाद के धरातल से उभरी हैं. ये वो बाज़ारवाद है जहाँ लालसाओं की एक भीड़ हमारे आस-पास है लेकिन हम अकेले हैं. ये बाज़ारवाद हमें ये सिखाता है कि न हम किसी के हैं न कोई हमारा है. यहाँ किसीको कोई रास्ता नहीं देता. हमें गिरा के अगर तुम संभाल सको तो चलो.
(नीमच, म.प्र. के स्थानीय संवाददाता अजय बडोलिया से प्राप्त जानकारियों के आधार पर)