एक परिंदा उड़ कंही से ,
घर की खिड़की पर आ बैठा |
वह बहुत खुश नहीं ,
हारा हुआ सा लग रहा था |
उसकी आँखे बता रही थी ,
आज फिर उसे किसी ने |
बहुत गहरी छोट दी है ,
खंजर की नहीं ,
प्यार का मारा हुआ सा लग रहा था |
बड़ी सिद्धत्तो से बनाया था आशियाना ,
वो किसी और घोसले के हो लिए |
बार बार वह खिड़की के शीशे में चोंच मरता ,
कहता ,बस अब आगे न बोलिए ...|
ये तो मेरी दास्तां है ,
जो केहदी आपसे |
गर कंही मिलजाए वो ...
हाल मेरा न उसे बोलिए .......|
- हरीश मलैया ..