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पत्रोत्कंठित जीवन का विष

12 अप्रैल 2022

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पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है,

आज्ञा का प्रदीप जलता है हृदय-कुंज में,

अंधकार पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है

दिङ् निर्णय ध्रुव से जैसे नक्षत्र-पुंज में ।

लीला का संवरण-समय फूलों का जैसे

फलों फले या झरे अफल, पातों के ऊपर,

सिद्ध योगियों जैसे या साधारण मानव,

ताक रहा है भीष्म शरों की कठिन सेज पर ।

स्निग्ध हो चुका है निदाघ, वर्षा भी कर्षित

कल शारद कल्य की, हेम लोमों आच्छादित,

शिशिर-भिद्य, बौरा बसंत आमों आमोदित,

बीत चुका है दिक्चुम्बित चतुरंग, काव्य, गति

यतिवाला, ध्वनि, अलंकार, रस, राग बन्ध के

वाद्य-छन्द के रणित गणित छुट चुके हाथ से

क्रीड़ाएँ व्रीड़ा में परिणत । मल्ल भल्ल की

मारें मूर्छित हुईं, निशाने चूक गए हैं ।

झूल चुकी है खाल ढाल की तरह तनी थी।

पुनः सवेरा, एक और फेरा है जी का ।

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रचनाएँ
सांध्य काकली
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निरालाजी की ये अंतिम कविताएँ अनेक दृष्टियों से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । उनके विचारों, आस्थाओं ही के सम्बन्ध में नहीं, उनके मानसिक असन्तुलन की उग्रता के सम्बन्ध में भी लोगों में बड़ा मतभेद है । उनकी इन अन्तिम कविताओं से इन विवादग्रस्त विषयों पर विचार करने में सहायता मिलेगी ।
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जय तुम्हारी देख भी ली

12 अप्रैल 2022
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जय तुम्हारी देख भी ली रूप की गुण की, रसीली ।      वृद्ध हूँ मैं, वृद्ध की क्या, साधना की, सिद्धी की क्या, खिल चुका है फूल मेरा, पंखड़ियाँ हो चलीं ढीली । चढ़ी थी जो आँख मेरी, बज रही थी जहाँ भ

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पत्रोत्कंठित जीवन का विष

12 अप्रैल 2022
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पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है, आज्ञा का प्रदीप जलता है हृदय-कुंज में, अंधकार पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है दिङ् निर्णय ध्रुव से जैसे नक्षत्र-पुंज में । लीला का संवरण-समय फूलों का जैसे फलों

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फिर बेले में कलियाँ आईं

12 अप्रैल 2022
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फिर बेले में कलियाँ आईं । डालों की अलियाँ मुसकाईं । सींचे बिना रहे जो जीते, स्फीत हुए सहसा रस पीते; नस-नस दौड़ गई हैं ख़ुशियाँ नैहर की ललियाँ लहराईं । सावन, कजली, बारहमासे उड़-उड़ कर पूर्वा

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(अ) धिक मद, गरजे बदरवा

12 अप्रैल 2022
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अधिक मद, गरजे बदरवा, चमकि बिजुलि डरपावे, सुहावे सघन झर, नरवा       कगरवा-कगरवा ।

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(आ) समझे मनोहारि वरण जो हो सके

12 अप्रैल 2022
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समझे मनोहारि वरण जो हो सके, उपजे बिना वारि के तिन न ढूह से । सर नहीं सरोरुह, जीवन न देह में, गेह में दधि, दुग्ध; जल नहीं मेह में, रसना अरस, ठिठुर कर मृत्यु में परस, हरि के हुए सरस तुम स्नेह से

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