अब औरतें भी मर्दों को उतनी ही तेज़ी से तलाक़ दे सकती हैं जितनी तेज़ी से मर्द उन्हें देते रहे हैं. 'तेज़ी' शब्द यहाँ जोड़ देना इस लिए मुनासिब लगा क्योंकि तीन बार तलाक़ शब्द का उच्चारण करने में केवल एक सेकेंड लगता है. जनमों का बंधन क्षण भर में समाप्त. इस्लाम धर्म में कई ऐसे बिंदु हैं जिनपर कहीं न कहीं और कभी न कभी वाद-विवाद ज़रूर होता रहा है. ‘अल्लाह का इस्लाम’ और ‘मुल्ला का इस्लाम’ जैसे जुमलों के सहारे मतभेद उजागर होते रहे हैं. इसी बुनियाद पर सुधारवादियों की माँग उठती रही है की बदलते वक़्त की माँग है कि इस्लामी जगत अपने घर की मरम्मत करे ताकि विकास के पथ पर उसकी गति धीमी न पड़े, लेकिन जब-जब ऐसी माँगें उठीं, इस्लाम के मानने वालों ने ऐसी बातें सोचने से भी परहेज़ किया. उनके अनुसार उनका धर्म सबसे पवित्र और सबसे सही है. इससे परे, धर्म के बारे में किसी सवाल का उठना, उनके नज़दीक, शैतान के चंगुल में आ जाना माना जाता रहा और ये दस्तूर आज भी कमो-बेश क़ायम है.
हालाँकि तीन बार तलाक़ कहकर तलाक़ देने की परंपरा के विरुद्ध बरेलवी मत ने ये व्यवस्था (कि मुस्लिम मर्दों की तरह मुस्लिम औरतें भी 'तलाक़े-तफवीज़' ले सकती है) उस सवाल के जवाब में दी जब मानचेस्टर में रहने वाले एक बरेलवी-मत के मुस्लिम पिता ने अपनी बेटी के निकाह से पहले निकाह में निहित उसके अधिकारों के बारे में जानना चाहा. वैसे तो बरेलवी और देवबंदी मत के मानने वाले दो अलग समुदाय हैं और दोनों में कई बिंदुओं पर टकराव भी है लेकिन निकाह में मुस्लिम औरतों के अधिकार पर आए इस बरेलवी फ़तवे का समर्थन देवबंदी विचारधारा ने भी किया है.
दरगाह 'आला हज़रत' (बरेली) के मुफ़्ती मोहम्मद सलीम नूरी ने ये बताते हुए, कि यूरोपियन समाज में, विवाह-पश्चात संबंधों में, कटुता एक सामान्य बात है, कहा की इस्लामी द्रष्टिकोण के अनुसार औरत भी निकाह तोड़ सकती है लेकिन ये प्रावधान निकाह के समय मर्द द्वारा की गई घोषणा (मौखिक या लिखित) के रूप में होना चाहिए. इसका सीधा अर्थ ये है की निकाह के समय दूल्हा ये कहे की ' वो अपनी होने वाली पत्नी को ये अधिकार देना चाहता है कि वो जब चाहे इस निकाह को तोड़ सकती है', केवल तभी औरत ये अधिकार पाती है कि वो अपनी मर्ज़ी से तलाक़ ले सके. यानी एक विवाद कालांतर के लिए रख छोड़ा गया है जब औरत ये माँग करेगी कि उसे किसी के साथ वैवाहिक संबंध रखना है या नहीं रखना है इसके लिए उसे अपने मर्द से इजाज़त की दरकार क्यों है.
सुधारवादियों की द्रष्टी भी फ़तवे के इस पहलू पर अच्छी तरह है लेकिन जैसी की एक सुधारवादी ने प्रतिक्रिया दी, "जनाब पत्थर से जितना पानी निकल आया है उतना तो इस्तेमाल कर लीजिए, बाक़ी फिर निकाल लेंगे" वो जानते हैं की रास्ता तंग है, एक-एक क़दम करके ही बढ़ना बेहतर रहेगा. इस बीच तलाक़ के इस अमानुषिक प्रावधान के खिलाफ जो दर्जनों फरियादें सुप्रीम कोर्ट की दहलीज़ पर लंबित हैं, उनकी तरफ भी सुधारवादियों की निगाह लगी हुई है. बेहतर समाज की उमीदें तो रक्खी ही जा सकती हैं.