पिघल उठता है हृदय,
जब नजर जाती है फुटपाथ पर,
कैसे ? बिताते हैं अपना जीवन।
उस भयानक डगर पर।
अपना बसेरा खुले आसमान में बनाये हैं।
रुलाई गुप्त कमरे में,
उनके हृदय में उमड़ती है।
सुसंस्कृत,बुद्धिमानों की श्रेणी में नहीं आते।
इन सब चीजों से दूर,
उसी परिवेश में जन्मे बालकों का,
परिवरिश करती हैं।
असंख्य स्त्री पुरुष भटकते,
किसी वस्तु की खोज में।
रूकना चाहते हैं कहीं,
लेकिन मिलो दूरियां पैदल चले जाते हैं।
अंधेरी खांई रूपी जीवन को पार करते हुए।
जीवन कठिनाई से काटतें हैं।
गन्दी बस्तियों में नालों के पास,
अपना आहार बनातें हैं।
पत्थर और ईट के चूल्हों पर,
सुलगाते हैं आग।
पकाते हैं भोजन।
वहीं फुदकते हैं दो चार,
ठोस बनी स्त्री-पुरुष की आकृतियाँ।
चिलचिलाती हुई धूप में।
मुझे होती है ग्लानि,
इस देश की असली तस्वीरें देखकर।
आज भी लोग,
इस कदर जीवन जीने पर मजबूर हैं।
पिघल उठता है हृदय,
जब नजर जाती है फुटपाथ पर।
रमेश कुमार सिंह /०७-०८-२०१५