सुना है गांव में बादल आये हैं
मां के कदमों में झूमकर बरसे हैं
कुछ ग़म की बूंदों ने शिकायत की
और ढेर सारे खुशी के पानी झरे हैं
मां से बोले हैं बादल
अपने शहर वाले बेटे को जरा समझाओ
इतना पढ़ा लिखा है कुछ अकल दे आओ
धड़ाधड़ पेड़ काट रहा है
कंकड़ पत्थर के जंगल उगा रहा है
इसीलिए रूठा हूं उससे
थोड़ा सा ऐंठा हूं दुख से
हे माँ अब भी नहीं माना तेरा बेटा तो जान ले
मेरी भी शख्सियत को पहचान ले
हमेशा के लिए दूर चला जाऊंगा
लाख जतन करे लौट कर नहीं आऊंगा
औऱ तेरा गांव वाला बेटा भी कुछ कम नहीं है
तालाब तलैय्या पाट रहा उसे भी कोई ग़म नहीं है
हमारी जीवन चर्या सब भूल गए हैं
बनावटी जिंदगी में फूल गए हैं
ताल नदी का पानी ही नहीं मिलेगा
पेड़ों से बहता रवानी ही नहीं मिलेगा
तो हम कहाँ से आसमां में घर बना पाएंगे
मां तेरे बेटों को पानी कहाँ से दे पाएंगे
और यह जो कारीगरी से पानी बरसाने की बात करते हैं
हाथ पर सरसों उगा कर जिंदगानी की बात करते हैं
उन्हें भी तू समझा ले प्यारी मैया
कितने दिन ऐसे चलाएंगे दुनिया
अभी तक इधर उधर से बरस रहा हूँ
तेरे बेटों पर अब भी खा तरस रहा हूँ
वो दिन दूर नहीं जब दूर चला जाऊंगा
लाख जतन करें फिर वापस न आऊँगा
-विशाल शुक्ल अक्खड़