लखनऊ ब्यूरो-: रिक्शाचालक राजेंद्र् लखनऊ की डालीबाग कालोनी में रहता है। खासी मशक्कत के बाद दिन भर में बमुश्किल दालरोटी का जुगाड बना पाता है। बेटा सिर्फ एक शिवम्। इसकी झोपडी से कुछ ही फासले पर नरही बाजार में सरकारी प्राइमरी स्कूल है। यहां बच्चों को दोपहर का खाना, किताबें और स्कूली ड्रेस भी दी जाती है। लेकिन, राजेंद्र अपने बेटे को यहां नहीं, एक निजी स्कूल में ही पढाता है। इसी तरह दूसरों के बर्तन मांजकर पेट पालने वाली किरण यादव का भी यही हाल है। यह भी अपनी दो बेटियों को निजी स्कूल में ही पढाती है। लखनऊ की अनाज मंडी में पल्लेदारी करने वाले हीरा पासी, छंगू कोरी और दूसरे कई पल्लेदारों की भी यही मजबूरी है। इनके बच्चे भी सरकारी प्राइमरी स्कूल में नहीं, निजी स्कूल में ही पढते हैं। इन सबका एक ही जवाब है सरकारी स्कूलों में पढाकर अपने बच्चों की जिंदगी क्यों खराब करें साहब! बहुत बुरा हाल है इन स्कूलों का। पढाई ही नहीं होती है इनमें। तो क्यों भेजे अपने बच्चों को? उनकी जिंदगी बर्बाद करनी है क्या?
पिछले लगभग 15 सालों से सपा बसपा की सरकारों के दौर में, उत्तर प्रदेश के सरकारी प्राइमरी और जूनियर हाईस्कूलों का यही सच है। सरकार बदलती रहीं हैं। लेकिन, सुधार के नाम पर इन स्कूलों की हालत में कोई भी सकारात्मक बदलाव नहीं आ सका है। साल दर साल इनकी हालत लगातार बिगडती ही जा रही है। मिड डे मील में भी अंधाधुंध कमाई। इसके खाने में आये दिन चूहा, छिपकली आदि मिलने से बच्चों की जान तक खतरे में पड जाती है। इन स्कूलों के अध्यापक भी प्रायः आसपास के ही रहने वाले होते हैं। उनके लिये अपने घर की देखभाल और दूसरे काम ज्यादा जरूरी होते हैं। उनसे फुर्सत पाने पर ही पढाने चले आते हैं। वह भी घंटे दो घंटे के लिये ही। न भी आये, तो कौन पूछने वाला है?
आमतौर से कहा जाता है कि प्राइमरी शिक्षा यानी समाज के भविष्य की नींव। यह नींव जितनी मजबूत होगी, समाज उतना ही मजबूत बनेगा। सिद्धांततः यही सोचकर उत्तर प्रदेश सरकार इन पर एक साल में 55 हजार करोड रु से भी अधिक खर्च कर रही है। लेकिन, हर साल इतनी बडी धनराशि खर्च करने के बावजूद इन स्कूलों का कच्चा चिट्ठा यह है कि प्रदेश के 52 प्रतिशत से भी अधिक बच्चे प्राइवेट स्कूलों में पढने के लिये बाध्य हैं। इसकी वजह सरकारी स्कूलों में पढाई का स्तर बहुत ही खराब होना है।
सच तो यह है कि इन स्कूलों में पांचवीं कक्षा के लगभग 60 प्र.श. बच्चे कक्षा तीन की किताबें नहीं पढ़ सकते हैं। आठवीं कक्षा के लगभग 80 प्र.श. छात्र गुणा भाग नही कर सकते हैं। इसी कक्षा के लगभग 4 प्रतिशत छात्र हिंदी के अक्षर और अंक नहीं पहचान पाते हैं। तीसरी कक्षा के लगभग 18 प्र.श. छात्र हिंदी के अक्षर और अंक नहीं पहचान पाते हैं। इसी तरह दूसरी कक्षा के लगभग 28 प्र.श. छात्र हिंदी के अंक और अक्षर नहीं पहचान पाते हैं। पांचवीं कक्षा तक के लगभग 59 प्र.श. छात्र कक्षा तीन की किताब नहीं पढ पाते हैं। यह उस स्थिति में है, जबकि सरकारी स्कूलों के अध्यापकों की योग्यता, वेतन आदि निजी स्कूलों के अध्यापकों की तुलना में कहीं अच्छा होता है। मानव विकास सूचनांक का एक प्रमुख मुद्दा छोटे बच्चों की पढाई का है। सरकारी विद्यालयों में सरकार का जितना खर्च होता है, उतनी ही फीस पर बच्चा दून स्कूल जैसे बोर्डिंग के स्कूल में पढ सकता है।
इस चरम अधोगति एक खास वजह सरकारी व्यवस्था में कई गंभीर खामियों का होना हैं। इन स्कूलों में सेवारत शिक्षकों से अपेक्षाएं बहुत हैं। इसी के चलते पल्स पोलियों, जनगणना, मतदाता सूची और मतदान से लेकरहर सरकारी काम में उसे लगा दिया जाता है। पढाई न होने का दोष भी इन्हीं के मत्थे मढ़ दिया जाता है। साल भर किताबें नहीं मिलती हैं। स्कूल ड्रेस से लेकर मिड डे मील तक की जिम्मेदारी उसे सौंप दी जाती है। इस स्थिति में सरकारी स्कूलों में बच्चों की शिक्षा पर ही पूरी ध्यान दिया जाना चाहिये। शिक्षकों से पढाई के अलावा दूसरे और काम नहीं लिये जाने चाहिये।