नई दिल्ली : आरबीआई के डीमोनेटाजेशन के फैसले को ऐतिहासिक माना जा रहा है। आर्थिक जानकारों की माने तो जिन फैसलों को लेने में आरबीआई के पुराने गवर्नर कतराते रहे उसे आरबीआई के नए गवर्नर उर्जित पटेल ने दो महीने में ही लागू कर दिया। बात सिर्फ नोट बदलने के फैसले की ही नही बल्कि आरबीआई के नीतिगत दरों में कटौती, पब्लिक डेब्ट मैनेजमेंट एजेंसी (पीडीएमए) बनाने का प्रस्ताव, बैड बैंक पर सहमति जैसे कई फैसले हैं जिन्हें लेने से खुद इससे पूर्व के गवर्नर रघुराम राजन भी कतराते रहे।
इन सब में आरबीआई गवर्नर जा सबसे बड़ा फैसला तो नोटबंदी ही रहा। एक रिपोर्ट की माने तो यूपीए सरकार भी पुराने नोट बदलना चाहती थी लेकिन तब तत्कालीन गवर्नर राघराम राजन में इस काम में अड़ंगा डाल दिया था। रघुराम राजन का कहना था कि नोटबंदी से होने वाली परेशानी उसके फायदों से कई ज्यादा होगी। इस बात का खुलासा तब के वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने एक टीवी चैनल के इंटरव्यू में बताया। आरबीआई के डिप्टी गवर्नर केसी चक्रवाती ने भी इंटरव्यू में इस बात को माना कि इसे उस वक़्त राघराम राजन में पहली ही नजर में रिजेक्ट कर दिया था।
रघुराम राजन के जाने के बाद एक बात तो यह भी कहनी होगी कि जिन फैसलों को मोदी सरकार रघुराम राजन के रहते लागू नही करवा पा रही थी वो सारे उर्जित पटेल के आते ही लागू हो गए। तो क्या नए आरबीआई गवर्नर उस राह पर चल रहे है जिसका जिक्र रघुराम राजन ने अपने विदाई के वक़्त कहा था। रघुराम राजन ने कहा था कि आगे यह देखना होगा कि आरबीआई की स्वायत्ता कितनी बची रहती है। दो महीने से थोड़े अधिक के कार्यकाल में कम से कम पांच ऐसी चीजें हुई हैं, जिनसे ऐसा संकेत मिलता है कि उर्जित पटेल की अगुवाई में रिजर्व बैंक ने सरकार के बताए रास्ते पर चलना शुरू कर दिया है।
नोटबंदी इसका सबसे नया उदाहरण है। यह बात नही भूलनी होगी कि आरबीआई हमेशा एक स्वायत्त संस्था रही है और मौद्रिक नीति के फैसले लेना उसका काम है। नोटबंदी पूरी तरह सरकार का फैसला था जिसे लागू करने में आरबीआई ने भी बिना आंकलन किये हाँ कर दिया। अब सवाल या उठता है कि जो आरबीआई देश की मौद्रिक नीति को इतनी बारीकी से समझता है उसने यह फैसला बिना आंकलन के कैसे ले लिया। क्योंकि नोटों को लेकर जो परेशानियां आ रही है उससे यह अंदाज लगाया जा सकता है कि आरबीआई इसके लिए तैयार नही था।
आरबीआई गवर्नर बनने के बाद हमेशा यही लगा कि आरबीआई का पक्ष भी सरकार द्वारा ही दिया जाता है, नोटबंदी पर सरकार ने मोर्चा सम्भाला है जबकि इस सामने आने की जिम्मेदारी आरबीआई गवर्नर की थी। अलग बैड बैंक बनाने का प्रस्ताव भी रघुराम राजन के सामने रखा गया था तब रघुराम राजन ने इसका राघराम राजन ने विरोध किया था। उनका मानना था कि सरकारी बैंकों के जो एनपीए हैं, उनका बड़ा हिस्सा ऐसी परियोजनाओं में लगा हुआ है जो फायदेमंद साबित हो सकती हैं। वे कहते थे कि जरूरत बैड बैंक बनाने की नहीं बल्कि लटकी पड़ी परियोजनाओं को तेजी से मंजूरी दिलाने और उनके क्रियान्वयन में तेजी लाने की है। उन्हें लगता था कि अगर ऐसा हो गया तो बैंकों का कर्ज उन्हें वापस मिलने लगेगा।